अपरा एकादशी पर विष्णु भगवान की पूजा करने से हो जाती हैं सभी मनोकामनाएं पूरी।

अपरा एकादशी पर विष्णु भगवान की पूजा करने से हो जाती हैं सभी मनोकामनाएं पूरी।  


अपरा एकादशी के दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा की जाती है. मान्यता है कि इस दिन विधि-विधान से पूजा अर्चना करने से भगवान विष्णु की कृपा अवश्य मिलती है।  अपरा एकादशी को अचला एकादशी भी कहते हैं ।सोमवार, 18 मई को अपरा एकादशी है। इस दिन विधि-विधान से भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। एकादशी के दिन विष्णु भगवान की पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं और भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। अपरा या कहें अचला एकादशी का हिंदू धर्म में बहुत अधिक महत्व माना जाता है। मान्यता है कि इस एकादशी का उपवास रखने से पापी से पापी मनुष्य के पाप भी कट जाते हैं और अपार खुशियां मिलती हैं। मकर संक्रांति के समय गंगा स्नान, सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र और शिवरात्रि के समय काशी में स्नान करने से जो पुण्य मिलता है उसके समान पुण्य की प्राप्ति अपरा एकादशी के व्रत से होती है। हालांकि समस्त एकादशियों में ज्येष्ठ मास की शुक्ल एकादशी जिसे निर्जला एकादशी कहते हैं सर्वोत्तम मानी जाती है लेकिन ज्येष्ठ महीने की ही कृष्ण एकादशी भी कम नहीं मानी जा सकती। इस एकादशी को अपरा (अचला) एकादशी कहा जाता है। पदमपुराण के अनुसार इस व्रत को करने वाले मनुष्य को जीते जी ही नहीं बल्कि मृत्यु के बाद भी लाभ मिलता है। अपरा एकादशी का पुण्‍य अपार है. कहते हैं कि इस एकादशी का व्रत करने से व्‍यक्ति के सभी पाप नष्‍ट हो जाते हैं और वह भवसागर से तर जाता है।  मान्‍यता है कि इस दिन 'विष्‍णुसहस्त्रानम्' का पाठ करने  से सृष्टि के पालनहार श्री हरि विष्‍णु की विशेष कृपा बरसती है।  जो लोग एकादशी का व्रत नहीं कर रहे हैं उन्‍हें भी इस दिन भगवान विष्‍णु का पूजन करना चाहिए और चावल का सेवन नहीं करना चाहिए। 

जब धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगे कि- हे भगवन्! ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी का क्या नाम है तथा उसका माहात्म्य क्या है, सो कृपा कर कहिए।  तब भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजन यह एकादशी ‘अचला’ तथा 'अपरा' दो नामों से जानी जाती है। यह व्रत पापरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। पापरूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि, पापरूपी अंधकार को मिटाने के लिए सूर्य के समान, मृगों को मारने के लिए सिंह के समान है। अत: मनुष्य को पापों से डरते हुए इस व्रत को अवश्य करना चाहिए।

इस बार अपरा एकादशी 18 मई 2020 सोमवार को पड़ रही है. अपरा एकादशी पर विष्णु भगवान की पूजा अर्चना का भी अपना अलग महत्व होता है । अपरा एकादशी पर श्रद्धालु पूरा दिन व्रत रहकर शाम के समय भगवान विष्णु की पूजा अर्चना करते हैं जिससे उनको मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है ।  मान्यता है कि अपनी गलतियों की क्षमा प्राप्ति के लिए अपरा एकादशी पर विधि विधान से पूजा अर्चना करने से भगवान विष्णु की कृपा अवश्य मिलती है।

अपरा एकादशी की पूजा विधि

  • अपरा एकादशी पर भगवान विष्णु की पूजा एक दिन पहले दशमी तिथि की रात्रि से ही शुरू हो जाती है ।
  • दशमी तिथि के दिन सूर्यास्त के बाद भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए ।
  • -एकादशी की सुबह सूर्योदय से पहले उठें और अपने स्नान के जल में गंगाजल मिलाकर स्नान करें और साफ कपड़े पहन कर विष्णु भगवान का ध्यान करना चाहिए.
  • पूर्व दिशा की तरफ एक पटरे पर पीला कपड़ा बिछाकर भगवान विष्णु की फोटो को स्थापित करें. इसके बाद धूप दीप जलाएं और कलश स्थापित करें.
  • भगवान विष्णु को अपने सामर्थ्य के अनुसार फल-फूल, पान, सुपारी, नारियल, लौंग आदि अर्पण करें और स्वयं भी पीले आसन पर बैठ जाएं ।
  • अपने दाएं हाथ में जल लेकर अपनी मुश्किलों को खत्म करने की प्रार्थना भगवान विष्णु से करें ।
  • पूरा दिन निराहार रहकर शाम के समय अपरा एकादशी की व्रत कथा सुनें और फलाहार करें ।
  • शाम के समय भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने एक गाय के घी का दीपक जलाएं ।

अपरा एकादशी के दिन बरतें ये सावधानियां

  • धार्मिक मान्यताओं के अनुसार एकादशी के पावन दिन चावल का सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चावल का सेवन करने से मनुष्य का जन्म रेंगने वाले जीव की योनि में होता है। इस दिन जो लोग व्रत नहीं रखते हैं, उन्हें भी चावल का सेवन नहीं करना चाहिए।
  • एकादशी का पावन दिन भगवान विष्णु की अराधना का होता है, इस दिन सिर्फ भगवान का गुणगान करना चाहिए। एकादशी के दिन गुस्सा नहीं करना चाहिए और वाद-विवाद से दूर रहना चाहिए। 
  • अपरा एकादशी के दिन देर तक ना सोएं ।
  •  घर में लहसुन प्याज और तामसिक भोजन बिल्कुल भी ना बनाएं ।
  • एकादशी की पूजा पाठ करते समय साफ-सुथरे कपड़े पहनकर ही पूजा करें ।
  • अपरा एकादशी का व्रत विधान करते समय परिवार में शांतिपूर्वक माहौल बनाए रखें 
  • एकादशी के पावन दिन मांस- मंदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन ऐसा करने से जीवन में तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस दिन व्रत करना चाहिए। अगर आप व्रत नहीं करते हैं तो एकादशी के दिन सात्विक भोजन का ही सेवन करें। 

एकादशी तिथि का आरंभ: 17 मई 2020 को 12:44 बजे
एकादशी तिथि का समापन: 18 मई 2020 को 15:08 बजे
अपरा एकादशी पारण समय: 19 मई 2020 को प्रात: 05:27:52 से 08:11:49 बजे तक
अवधि: 2 घंटे 43 मिनट

ओम नमो नारायणाय

भगवान श्रीराम बारह कला के अवतार माने गए तथा श्रीकृष्ण सोलह कला के। जानिये क्या है ये कलाओ का चक्कर ?

भगवान श्रीराम बारह कला के अवतार माने गए तथा श्रीकृष्ण सोलह कला के।  जानिये क्या है ये कलाओ का चक्कर ? 


भगवान विष्णु के दशावतार बताये जाते हैं जिनमें 9 अवतार रूप धारण कर चुके हैं जबकि दसवें अवतार का जन्म लेना अभी बाकि है। मान्यता है कि विष्णु का दसवां अवतार कल्कि होगें जो कलयुग के अंत में अवतरित होंगे और श्वेत अश्व पर सवार हो दुष्टों का संहार करेंगें। अभी तक विष्णु ने जितने भी अवतार रूप लिये हैं उनमें श्री कृष्ण सबसे श्रेष्ठ अवतार माने जाते हैं क्योंकि उनमें किसी भी व्यक्ति में संभव होने वाली समस्त  सोलह कलाएं मौजूद थी। हमारे ग्रंथों में अब तक हुए अवतारों का जो विवरण है उनमें मत्स्य, कश्यप और वराह में एक-एक कला, नृसिंह और वामन में दो-दो और परशुराम मे तीन कलाएं बताई गई हैं। श्री राम ने बारह कलाओं के साथ अवतार लिया था। भगवान श्रीकृष्ण ही सोलह कलाओं के स्वामी माने जाते हैं। भगवान राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। सोलह श्रृंगार के बारे में भी आपने सुना होगा।  उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वरतुल्य होता है। १६ कलाओं की चर्चा का आरम्भ क्यों हुआ ? वस्तुतः यह १६ कलाएं जीव की हैं । अर्थात् पुरुष शरीर जब प्रकट होता है तो उसमें ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ, १ मन और पंचमहाभूत ये मिलकर १६ कलाएं हो जाती हैं। इन्हीं को १६ कलाओं का अवतार कहा जाता है। इस परिभाषा से भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण में समानता है क्योंकि दोनों मनुष्याकृति के अवतार हैं और दोनों में ११ इन्द्रि। 

कला वैसे सामान्य शाब्दिक अर्थ के रूप में देखा जाये तो कला एक विशेष प्रकार का गुण मानी जाती है। यानि सामान्य से हटकर सोचना, सामान्य से हटकर समझना, सामान्य से हटकर खास अंदाज में ही कार्यों को अंजाम देना कुल मिलाकर लीक से हटकर कुछ करने का ढंग व गुण जो किसी को आम से खास बनाते हों कला की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। भगवान विष्णु ने जितने भी अवतार लिये सभी में कुछ न कुछ खासियत होती थी वे खासियत उनकी कला ही थी।

आपने सुना होगा कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि ऐसे शब्दों को जिनका संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है, जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है। पंद्रह कलाओं से युक्त व्यक्ति को अंशावतार ही माना जाता है। श्रीराम बारह और भगवान कृष्ण सोलह कलाओं से युक्त थे। एक मान्यता यह भी है कि राम सूर्यवंशी हैं तो सूर्य की बारह कलाओं के कारण, उनके भीतर बारह कलाएं थी। कृष्ण चंद्रवंशी हैं तो चंद्रमा की सोलह कलाओं से युक्त होने के कारण पूर्णावतार हैं। भगवान श्रीकृष्ण के बारे में कहा जाता था कि वह संपूर्णावतार थे और मनुष्य में निहित सभी सोलह कलाओं के स्वामी थे।शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार ईश्वर का पूर्णावतार, ईश्वर के सोलह अंशों (कला) से पूर्ण होता है। सामान्य मनुष्य में पांच अशों (कलाओं) का समावेश होता है। यही मनुष्य योनि की पहचान भी है। पांच कलाओं से कम होने पर पशु, वनस्पति आदि की योनि बनती है और पांच से आठ कलाओं तक श्रेष्ठ मनुष्य की श्रेणी बनती है। अवतार नौ से सोलह कलाओं से युक्त होते हैं।  कला को अवतारी शक्ति की एक इकाई मानें तो श्रीकृष्ण सोलह कला अवतार माने गए हैं। सोलह कलाओं से युक्त अवतार पूर्ण माना जाता हैं, अवतारों में श्रीकृष्ण में ही यह सभी कलाएं प्रकट हुई थी। इन कलाओं के नाम निम्नलिखित हैं:-
१. श्री संपदा: प्रथम कला धन संपदा नाम से जानी जाती हैं है। इस कला से युक्त व्यक्ति के पास अपार धन होता हैं और वह आत्मिक रूप से भी धनवान होता है। 
२. भू संपदा:  वह व्यक्ति जो पृथ्वी के राज भोगने की क्षमता रखता है।  
३ कीर्ति संपदा : जिस व्यक्ति की मान-सम्मान और यश की कीर्ति चारों और फैली हुई हो।  
४. वाणी सम्मोहन:   इस कला से संपन्न व्यक्ति मोहक वाणी युक्त होता हैं।  
५. लीला : इस कला से युक्त व्यक्त अपने जीवन की लीलाओं को रोचक और मोहक बनाने में सक्षम होता है।
६. कांति : ऐसे व्यक्ति जिनके रूप को देखकर मन स्वतः ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है।  
७. विद्या : सभी प्रकार के विद्याओं में निपुण व्यक्ति 
८. विमला : जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं होता
९. उत्कर्षिणि शक्ति :जो लोगों को मंजिल पाने के लिये प्रोत्साहित कर सके।   
१०. नीर क्षीर विवेक: युद्ध तथा सामान्य जीवन में जी प्रेरणा दायक तथा योजना बद्ध तरीके से कार्य करता हैं।  
११. कर्मण्यता: जिनकी इच्छा मात्र से संसार का हर कार्य हो सकता है।  
१२. योग शक्ति :  जिन्होंने अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है वह योग चित्तलय कला से संपन्न होते हैं।  
१३. विनय : अहंकार नहीं होता है।
१४. सत्य धारणा : व्यक्ति कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखता और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जानता  हैं।  
१५. आधिपत्य : व्यक्ति में वह गुण सर्वदा ही व्याप्त रहती हैं, जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है ।
१६. अनुग्रह क्षमता : निस्वार्थ भावना से लोगों का उपकार करना अनुग्रह उपकार है।

कुल मिलाकर जिसमें भी ये सभी कलाएं अथवा इस तरह के गुण होते हैं वह ईश्वर के समान ही होता है। क्योंकि किसी इंसान के वश में तो इन सभी गुणों का एक साथ मिलना दूभर ही नहीं असंभव सा लगता है, क्योंकि साक्षात ईश्वर भी अपने दशावतार रूप लेकर अवतरित होते रहे हैं लेकिन ये समस्त गुण केवल द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के अवतार रूप में ही मिलते हैं। जिसके कारण यह उन्हें पूर्णावतार और इन सोलह कलाओं का स्वामी कहा जाता है।

हजारों गुणों से भरी रामा–श्यामा तुलसी जाने कैसे हमारी इम्यून सिस्टम बढ़ाने में मददगार।

हजारों गुणों से भरी रामा–श्यामा तुलसी जाने कैसे हमारी  इम्यून सिस्टम बढ़ाने में मददगार।  


प्राचीन समय से ही तुलसी के पौधों  का धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व के साथ ही औषधीय गुण जन-जन के बीच विख्यात है। हिंदू धर्म में तुलसी के पौधे का काफी धार्मिक महत्व है।  ऐसा माना जाता है कि घर में तुलसी का पौधा लगाने से घर में सकारात्मकता, धन-दौलत, ज्ञान, ऐश्‍वर्य, शांति, आरोग्य एवं शुद्धता का वास बना रहता है। यही वजह है कि तुलसी को अत्यधिक गुणकारी एवं अद्वितीय भी माना जाता है।कई लोग तुलसी की पूजा और तुलसी विवाह भी संपन्न कराते हैं. तुलसी को सेहत के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है. तुलसी के पौधे में काफी औषधीय गुण भी पाए जाते हैं. यही वजह है कि इस पौधे को काफी कल्याणकारी और स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है. तुलसी भी कई प्रकार की होती हैं।  

तुलसी की मुख्यत: दो प्रजातियां अधिकांश घरों में लगाई जाती हैं। इन्हें रामा और श्यामा कहा जाता है। श्यामा  तुलसी को कृष्णा तुलसी भी कहा जाता है।  तुलसी को उसके गुणों एवं रंगों के आधार पर कई प्रजातियों में बाँटा गया है। इनमें से राम तुलसी और कृष्ण तुलसी दो लोकप्रिय प्रकार हैं। यहाँ हम राम और कृष्ण तुलसी के संबंध में जानेंगे। राम तुलसी एवं कृष्णा तुलसी दोनों का अपना-अपना औषधीय महत्व है। दोनों ही प्रकार के तुलसी के पौधे अनेक रोगों को जड़ से समाप्त करने की क्षमता से परिपूर्ण एवं आयुर्वेदिक औषधि की भांति सहायक एवं गुणकारी हैं। कहते हैं जिस घर में तुलसी होती है उस घर में सुख-समृद्धि की कमी नहीं रहती है। ईश्वर की कृपा सदैव बनी रहती है। इन दोनों तुलसी में ढेरों ऐसे गुण होते हैं जो बड़ी-बड़ी जटिल बीमारियों को दूर करने और उनकी रोकथाम करने में सहायक है। तुलसी का पौधा घर में रहने से उसकी सुगंध वातावरण को पवित्र बनाती है और हवा में मौजूद बीमारी के बैक्टेरिया आदि को भी नष्ट कर देती है। यह भी मान्यता है कि तुलसी का पौधा घर में होने से पवित्रता बनी रहती है। घर वालों को बुरी नजर प्रभावित नहीं कर पाती और अन्य बुराइयां भी घर और घरवालों से दूर ही रहती हैं। लेकिन क्या आपको है मालूम कि आपके गमले में कौन सी तुलसी विराजमान है? तुलसी के रंग के आधार पर, दो मुख्य प्रकार हैं, सफेद -राम तुलसी और काले पत्तों वाली तुलसी को श्यामा तुलसी कहा जाता है।  

राम तुलसी
रामा तुलसी हर जगह आसानी से देखने वाली तुलसी होती है, जिसके पत्ती हल्के हरे रंग की होती हैं। रामा के पत्तों का रंग हल्का होता है। इसलिए इसे गौरी भी कहा जाता है। हल्के हरे रंग के पत्तों एवं भूरी छोटी मंजरियों वाली तुलसी को राम तुलसी कहा जाता है। राम तुलसी का पूजा आदि में अधिक प्रयोग होता है। इस तुलसी की टहनियाँ सफेद रंग की होती हैं।  इसकी गंध एवं तीक्ष्णता कम होती है। राम तुलसी का प्रयोग कई स्वास्थ्य एवं त्वचा संबंधी रोगों के निवारण के लिए औषधी के रूप में किया जाता है। रामा तुलसी का इस्तेमाल मसालेदार और कड़वी, गर्म, सौम्य, पाचन, पसीना और बच्चों की सर्दी-खांसी की बीमारियों को ठीक करने के लिए किया जाता है।  

श्यामा या कृष्ण तुलसी
श्यामा तुलसी के पत्तों का रंग काला होता है। इसमें कफनाशक गुण होते हैं। यही कारण है कि इसे दवा के रूप में अधिक उपयोग में लाया जाता है। यह एक ऐसी किस्म होती है, जिसकी पत्ती, मंजरी व शाखाएं बैंगनी-काले से रंग की होती हैं। हल्के जामुनी या कृष्ण (काले) रंग की छोटी पत्तियों एवं मंजरियों का यह पौधा जामुनी रंग का होता है। श्याम तुलसी की शाखाएँ लगभग 1 से 3 फुट ऊँची एवं बैगनी आभा वाली होती हैं। इसके पत्ते 1 से 2 इंच लम्बे एवं अण्डाकार या आयताकार आकृति के होते हैं। श्यामा तुलसी मसालेदार और कड़वी, मुलायम, चिकनी, पचने में हल्की, शोषक और वात-पित्त में लाभदायक होती है।  तुलसी कफ, वायरल इन्फेक्शन, पित्ताशय की थैली, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, हृदय, एनीमिक और कुष्ठ जैसे रोगों में भी फायदेमंद है।   श्यामा तुलसी का रस एलर्जी से भी राहत दिलाता है। यह टेंशन, स्ट्रेस दूर करता है और बदलते मौसम से होने वाली जुकाम ठीक करता है।श्यामा तुलसी का काढ़ा किसी भी तरह के बुखार को ठीक करता है। श्यामा तुलसी स्टैमिना बढ़ाने में मददगार है। ये तुलसी मेटाबोलिज्म को सही बनाये रखता है और ठंडी के मौसम में होने वाले रोगों, इन्फेक्शन से सुरक्षा प्रदान करता है। 

रामा तुलसी की तुलना में श्याम तुलसी का स्वाद ज्यादा तेज और गर्म होता है। हरे पत्तों वाली राम तुलसी बच्चों के लिए और जामुनी रंग वाली श्यामा तुलसी जवान और बड़े उम्र लोगों के लिए अधिक लाभकारी होती है। इन दोनों तुलसी में ढेरों ऐसे गुण होते हैं जो बड़ी-बड़ी जटिल बीमारियों को दूर करने और उनकी रोकथाम करने में सहायक है। तुलसी का पौधा घर में रहने से उसकी सुगंध वातावरण को पवित्र बनाती है और हवा में मौजूद बीमारी के बैक्टेरिया आदि को नष्ट कर देती है। तुलसी की सुंगध हमें श्वास संबंधी कई रोगों से बचाती है। साथ ही तुलसी की एक पत्ती रोज सेवन करने से हमें कभी बुखार नहीं आएगा और इस तरह के सभी रोग हमसे सदा दूर रहते हैं। तुलसी की पत्ती खाने से हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता काफी बढ़ जाती है।

तुलसी की एक जाति वन तुलसी भी होती है। इसमें जबरदस्त जहरनाशक प्रभाव पाया जाता है, परन्तु परन्तु इसे घरों में बहुत कम लगाया जाता है। इस प्रकार की तुलसी आंखों के रोग, कोढ़ और प्रसव में परेशानी जैसी समस्याओं में बहुत उपयोगी  दवा है।

जानिये कृष्‍ण की नगरी वृन्दावन में बनने जा रहे दुनिया के सबसे ऊंचे मंदिर के बारे में रोचक जानकारी

जानिये कृष्‍ण की नगरी वृन्दावन में बनने जा रहे दुनिया के  सबसे ऊंचे मंदिर के बारे में  रोचक जानकारी 


कृष्‍ण की पवित्र  नगरी मथुरा-वृंदावन दुनिया भर  में मशहूर है और देश-विदेश के लाखों पर्यटक यहां घूमने आते हैं'।  कृष्‍ण की नगरी में वृंदावन में बनने जा रहा दुनिया का सबसे ऊंचा मंदिर और इसी के साथ यह दुनिया की सबसे ऊंची इमारत भी होगी।  वृंदावन में बनने जा रहे इस मंदिर का नाम चंद्रोदय है, जोकि दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा और मुकेश अंबानी के एंटीलिया से भी ऊंचा बनाया जा रहा है।  दुनिया में यह अब तक का सबसे विशाल, भव्य और ऊंचा मंदिर वृंदावन में बनाया जा रहा है। यह मंदिर कुतुब मीनार से भी तीन गुना उंचा होगा।

वृंदावन में बन रहे देश के सबसे उंचे चंद्रोदय मंदिर का निर्माण साल  2022 तक पूरा हो जाने की संभावना है। इसे इस्काॅन की बैंगलोर इकाई के द्वारा कुल  700  करोड़ रुपए की लागत से निर्मित किया जा रहा है। इस मंदिर के मुख्य आराध्य देव भगवान कृष्ण होंगे। इस मंदिर के 20 एकड़ क्षेत्र में भगवान कृष्ण पर आधारित देश के पहले थीम पार्क का भी निर्माण किया जाएगा। इस  मंदिर की आधारशिला 16 नवंबर 2014 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने रखी थी तथा उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मंदिर का शिलान्यास किया था।  मंदिर का भूमि पूजन मथुरा की सांसद और अभिनेत्री हेमा मालिनी द्वारा किया गया था। जानिये वृन्दावन में बनने वाले मंदिर के बारे में कुछ रोचक जानकारी : 


बताया जा रहा है कि इस्कॉन संस्था द्वारा वृंदावन में बनाया जाने वाले इस 70 मंजिला चंद्रोदय मंदिर की ऊंचाई 210 मीटर होगी और य‍ह एक पिरामिड के आकार में बनाया जाएगा. इसे बनाने की तैयारियां 2006 से की जा रही थीं। दिल्ली में 72.5 मीटर के कुतुब मीनार से इस इसकी ऊंचाई 3 गुना ज्यादा होगी, जिस के कारण पूर्ण होने पर, यह विश्व का सबसे ऊंचा धर्मालय बन जाएगा। पूरी बिल्डिंग में 511 पिलर होंगे। इन पर पूरी बिल्डिंग का वजन 5 लाख टन होगा, जबकि ये पिलर नौ लाख टन वजन सह सकते हैं। मंदिर के लिए हाई स्पीड लिफ्ट तैयार की जा रही है। इस मंदिर की सबसे खास बात यह है कि यदि किसी तूफान की वजह से बिल्डिंग एक मीटर झुक भी गई तो भी लिफ्ट सीधी चलती रहेगी। गति और दिशा में परिवर्तन नहीं होगा।

इस मंदिर की खास बात यह है कि इसकी केवल ऊंचाई ही नहीं बल्कि गहराई भी अधि‍क होगी, ताकि नींव भी उतनी ही मजबूत रहे। यह इमारत लगभग 55 मीटर गहरी होगी और इसका आधार 12 मीटर तक ऊंचा होगा। जबकि दुबई स्थि‍त दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा की गहराई मात्र 50 मीटर है। अत: चंद्रोदय मंदिर की गहराई बुर्ज खलीफा से भी 5 मीटर अधि‍क है। प्राकृतिक आपदा के लिहाज से भी इसे काफी मजबूत बनाया जा रहा है और 8 रिक्टर स्केल से अधिक तीव्रता का भूकंप भी इसे क्षति नहीं पहुंचा सकेगा। इसके अलावा इसमें प्रयोग किए जाने वाले कांच और अन्य सामान भी भूकंप रोधी होंगे। यह 170 किलोमीटर की तीव्रता के तूफान को भी झेलने में सक्षम होगा।  

इसके गगनचुम्बी शिखर के अलावा इस मंदिर की दूसरी विशेष आकर्षण यह है की मंदिर परिसर में 26  एकड़ के भूभाग पर चारों ओर 12 कृत्रिम वन बनाए जाएंगे, जो मनमोहक हरेभरे फूलों और फलों से लदे वृक्षों, रसीले वनस्पति उद्यानों,  हरे घास के मैदानों,  पेड़ों की सुंदर खा़काओं, पक्षी गीत द्वारा स्तुतिगान फूल लादी लताओं, कमल और लिली से भरे साफ पानी के पोखरों एवं छोटी कृत्रिम पहाड़ियों और झरनों से भरे होंगें, जिन्हें विशेष रूप से पूरी तरह हूबहू श्रीमद्भागवत एवं अन्य शास्त्रों में दिये गए कृष्णकाल के विवरण के अनुसार ही बनाया जाएगा ताकि यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं को कृष्णकाल के ब्रज का आभास कराया जा सके। पूरी तरह से तैयार होने के बाद यह मंदिर कृष्ण भक्तों की वृंदावन की कल्पना को पूरी तरह से साकार करेगा। यमुना के स्वरूप में कृत्रिम झरने का निर्माण किया जाएगा जिसमें पर्यटकों को नौकायन का अवसर भी मिलेगा। बच्चों को भी आनंद की अनुभूति होगी क्योंकि वहां जंगल में कृष्ण-लीला देखने को मिलेगी।

मंदिर की सबसे ऊंची मंजिला का नाम ब्रज मंडल दर्शन रखा गया है। यहां से ब्रज के 76 धार्मिक स्थानों और ताजमहल तक को दूरबीन से देखा जा सकेगा। पूरे मंदिर को घूमने  में श्रद्धालुओं को तीन से चार दिन लगेंगे। परंपरागत द्रविड़ और नगर शैली में बनाया जा रहा यह मंदिर, 200 सालों में अब तक का सबसे मॉडर्न मंदिर होगा, जिसमें 4डी तकनीक द्वारा देवलोक और देवलीलाओं के दर्शन भी किए जा सकेंगे। इसके अलावा इसमें श्रीकृष्ण के जीवन लीलाओं को जानने के लिए लाइब्रेरी तथा अन्य माध्यम भी होंगे।

इस व्यापक परियोजना के साथ ब्रज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए अक्षय पात्र मध्याह्न भोजन कार्यक्रम और वृंदावन की विधवाओं के लिए कल्याणकारी कार्यक्रमों को और मजबूत बनाने का उद्देश्य है। इसके साथ ब्रज के विभिन्न स्थलों का कायाकल्प किया जाएगा और यमुना नदी पर ध्यान दिया जाएगा।

15 हज़ार किलो सोने से बना दक्षिण भारत का स्वर्ण मंदिर जिसे दुनिया के अजूबों में शामिल किया गया है।

15 हज़ार किलो सोने से बना दक्षिण भारत का स्वर्ण मंदिर जिसे दुनिया के अजूबों में शामिल किया गया है।  


स्वर्ण मंदिर का नाम आते ही दिमाग में पंजाब के स्वर्ण मंदिर की याद आ जाती है।  परन्तु यदि आपसे कहा जाए की आप दक्षिण भारत के स्वर्ण मंदिर को जानते है तो आपका जवाब शायद ना में होगा।  तमिलनाडु के वेल्लोर नगर के मलाईकोड़ी पहाड़ो पर स्थित है यह महालक्ष्मी मंदिर। वैल्लूर से 7 किलोमीटर दूर थिरूमलाई कोडी में सोने से बना श्री लक्ष्मी नारायणी मंदिर है। अगर आपको  ऐसे स्वर्ग की सैर जीते जी करनी है, तो आपको एक ऐसी जगह के बारें में बता रहे है, जो कि पूरी तरह से सोने से बनी हुई है।  इस मंदिर की खासियत है इसकी अलौकिक भव्यता, जिसके लिए यह पूरी दुनिया में जाना जाता है।  जिस तरह उत्तर भारत का अमृतसर का स्वर्ण मंदिर बहुत खूबसूरत होने से साथ-साथ विश्व प्रसिद्ध भी है, उसी तरह दक्षिण भारत का यह स्वर्ण मंदिर है, जिसके निर्माण में सबसे ज्यादा सोने का उपयोग किया गया है।  जहां तक अमृतसर के स्‍वर्ण मंदिर की बात है, वहां केवल 750 किलो स्‍वर्ण की छतरी बनी है, जबकि उसकी तुलना में यहां 15 हज़ार किलो सोना लगाया गया है। यह अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के स्वर्ण से दोगुना  है। यह मंदिर दक्षिण भारत में स्थित है जो करीब 15 हज़ार किलो सोने से निर्मित है।  दुनिया के किसी भी मंदिर में नहीं लगा है इतना सोना। इसलिए दुनिया के चुनिंदा अजूबों में इस मंदिर का  नाम आता है। यह  मंदिर सिर्फ मां लक्ष्मी के दर्शन के लिए ही नहीं प्रसिद्ध है बल्कि मंदिर में लगा सोना हर किसी को अपनी ओर खींचता चला आता है।  इतनी मात्रा में सोने का प्रयोग किसी दूसरे मंदिर में नहीं हुआ है। माता लक्ष्मी को समर्पित इस मंदिर के निर्माण में 300 करोड़ रुपए से ज्यादा धनराशि की लागत लगी है।  

इस महालक्ष्मी मंदिर में हर एक कलाकृति हाथों से बनाई गई है। दिवाली आते ही दक्षिण भारत का यह मंदिर स्वर्ग की अनुभूति कराता है।   ऐसा माना जाता है कि अमावस की रात महालक्ष्मी स्वंय भ्रमण कर रही हों।   इस मंदिर को भक्तों के लिए 2007 में खोला गया था।  बड़े पैमाने पर 7 साल तक चले कार्य के बाद करीब 400 सुनारो और मजदूरों ने इसे बनाया था। यहाँ रोजाना लाखो भक्त दर्शन करने आते है।  रात के वक्त रौशनी में यह बहुत ख़ूबसूरत लगता है।  100 एकड़ से ज़्यादा क्षेत्र में फैला यह मंदिर चारों तरफ से हरियाली से घिरा हुआ है। इस स्वर्ण मंदिर को श्रीपुरम अथवा महालक्ष्मी स्वर्ण मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है।

मंदिर परिसर में लगभग 27 फीट ऊंची एक दीपमाला भी है। इसे जलाने पर सोने से बना मंदिर, जिस तरह चमकने लगता है, वह दृश्य  देखने लायक होता है। उस समय का नजारा देखने ही लायक होता है। यह दीपमाला सुंदर होने के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी रखती है। सभी भक्त मंदिर में भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी के दर्शन करने के बाद इस दीपमाला के भी दर्शन करना अनिवार्य मानते हैं। मंदिर को सुबह 4 से 8 बजे तक अभिषेक के लिए और सुबह 8 से रात के 8 बजे तक दर्शन के लिए खोला जाता है. इस मंदिर को और खूबसूरत बनाने के लिए इसके बाहरी क्षेत्र को सितारे का आकार दिया गया है।  दर्शनार्थी मंदिर परिसर की दक्षिण से प्रवेश कर क्लाक वाईज घुमते हुए पूर्व दिशा तक आते हैं, जहां से मंदिर के अंदर भगवान श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन करने के बाद फिर पूर्व में आकर दक्षिण से ही बाहर आ जाते हैं। साथ ही मंदिर परिसर में उत्तर में एक छोटा सा तालाब भी है।  मंदिर परिसर में देश  की सभी प्रमुख नदियों से पानी लाकर सर्व तीर्थम सरोवर का निर्माण भी कराया गया है।  मंदिर में जाने के लिए बहूत सारे नियम बनाये गये है जैसे आप लुंगी, शॉर्ट्स, नाइटी, मिडी, बरमूडा पहनकर नहीं जा सकते।  इस मंदिर की सुरक्षा में 24 घंटे पुलिस और सिक्योरिटी कंपनियों का पहरा रहता है।

यहाँ पहुंचने के लिए के लिए  इस मंदिर के सबसे पास काटपाडी रेलवे स्टेशन है। इस स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर ही ये मंदिर स्थित है। इसके अलावा यहां पहुंचने के लिए तमिलनाडु से कई और मार्ग भी हैं। यहां सड़क और वायु मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है।   

पौराणिक महत्व के आधार पर केवल इन्ही चार स्थानों पर क्यों होता है कुंभ मेले का आयोजन।

पौराणिक महत्व के आधार पर केवल इन्ही चार स्थानों पर क्यों होता है कुंभ मेले का आयोजन।


कुंभ मेला हिंदू समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण पर्व एवं दुनिया भर में किसी भी धार्मिक प्रयोजन हेतु भक्तों का सबसे बड़ा आयोजन  है। इसमें करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु कुंभ पर्व की जगह पर स्नान करने के लिए आते हैं।  कुंभ का आयोजन भारतवर्ष में मुख्य रूप से चार स्थानों पर होता है। इनमें हरिद्वार, उज्जैन, प्रयागराज और नासिक शहर शामिल हैं। इनमे उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ भी कहा जाता है। कुंभ का पर्व हर 12 वर्ष के अंतराल पर चारों में से किसी एक पवित्र नदी के तट पर मनाया जाता है।   हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में शिप्रा, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम जहां गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं।  इन स्थानों पर एक-एक करके अर्धकुंभ का आयोजन किया जाता है। उदाहरण के तौर पर, प्रयागराज में कुंभ के आयोजन के तीन साल बाद हरिद्वार में कुंभ का आयोजन होगा तो उसके तीन साल बाद अगले स्थान का नंबर आएगा। इस तरह हर तीन साल बाद कुंभ का आयोजन होता है। कुंभ मेला उज्जैन, नासिक, प्रयाग और हरिद्वार में मनाया जाता है। इन चार मुख्य तीर्थ स्थानों पर हर 12 साल के अंतराल में लगने वाले इस कुंभ पर्व में स्नान और दान करना अच्छा माना जाता है। इस मौके पर न सिर्फ हिंदू बल्कि दूसरे देशों से भी हिंदू समुदाय में विश्वास रखने वाले लोग स्नान करने के लिए आते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि इस कुंभ पर्व के समय को वैकुंठ के समान पवित्र कहते हैं और इस दौरान त्रिवेणी में स्नान करने वालों को एक लाख पृथ्वी की परिक्रमा करने से भी ज्यादा और हज़ारो अश्वमेघ यज्ञों का पुण्य मिल जाता है। इस मेले में स्नान करने वाले को स्वर्ग दर्शन के समान माना  जाता है।  

कुंभ मेला तीन तरह का होता है। अर्ध कुंभ, कुंभ और महाकुंभ। आमतौर पर हर छह  साल के अंतर में कुंभ का योग जरूर बन ही जाता है। इसलिए बारह साल में होने वाले पर्व को कुंभ और छह साल में होने वाले को अर्ध कुंभ कहते हैं।अर्ध कुंभ का आयोजन हर छह साल में किया जाता है और कुंभ का आयोजन हर बारह साल में होता है। जबकि महाकुंभ करीब 144 साल में एक बार लगता है। कुंभ का आयोजन बारह साल में इसलिए होता है क्योंकि ज्योतिषीय दृष्टिकोण से गुरु ग्रह एक राशि में करीब 1 साल रहते हैं। ऐसे में बारह साल बाद वह अपनी राशि में पहुंचते हैं। इसी साल कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। कुंभ मेलों के प्रकार:- 

महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह प्रत्येक 144 वर्षों में या बारह पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है।  
पूर्ण कुंभ मेला: यह हर बारह साल में आता है. मुख्य रूप से भारत में चार कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं. यह हर बारह  साल में इन चार स्थानों पर बारी-बारी आता है।  
अर्ध कुंभ मेला: इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज।  
कुंभ मेला: चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है. लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं।  


इस पर्व में जुटने वाली भीड़ को देखते हुए कुंभ आयोजन स्थान पर महिनों पहले से ही तैयारी शुरु कर दी जाती है।  वैसे तो कुंभ मेले में स्नान का यह पर्व मकर संक्रांति से शुरु होकर अगले पचास दिनों तक चलता है, लेकिन इस कुंभ स्नान में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण ज्योतिष तिथियां होती हैं, जिनका विशेष महत्व होता है।  यहीं कारण है कि इन तिथियों को स्नान करने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु तथा साधु इकठ्ठे होते हैं।  इन तिथियों को शाही स्नान भी कहा जाता है जैसे  मकर सक्रांति, पौष पुर्णिमा, मौनी अमवस्या – इस दिन दूसरे शाही स्नान का आयोजन होता है, बसंत पंचमी – इस दिन तीसरे शाही स्नान का आयोजन होता है, माघ पूर्णिमा तथा महाशिवरात्रि – यह कुंभ पर्व का आखिरी दिन होता है। शाही स्नान के दौरान साधु-संत हाथी-घोड़ो सोने-चांदी की पालकियों पर बैठकर स्नान करने के लिए आते हैं। यह स्नान ए खास मुहूर्त पर होता है, जिसपर सभी साधु तट पर इकट्ठा होते हैं और जोर-जोर से नारे लगाते हैं। माना जाता है कि इस मुहूर्त में नदी के अंदर डुबकी लगाने से अमरता प्राप्त हो जाती है। यह मुहूर्त करीब 4 बजे शुरु हो जाता है। साधुओं के बाद आम जनता को स्नान करने का अवसर दिया जाता है। कुंभ मेले के दौरान आयोजन स्थल पर इन 50 दिनों में लगभग मेले जैसा माहौल रहता है और करोड़ों के तादाद में श्रद्धालु इस पवित्र स्नान में भाग लेने के लिए पहुँचते है।


कलश को कुंभ कहा जाता है। कुंभ का अर्थ होता है घड़ा। इस पर्व का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से जुड़ा है।  माना जाता है कि समुद्र मंथन में निकले अमृत कलश को लेकर जब धन्वंतरि प्रकट हुए थे तो अमृत के लिए देवताओं और दानवों के बीच में युद्ध हुआ था और जब अमृत भरा कलश लेकर देवता जाने लगे तो उसे 4 जगहों पर रखा था। इस वजह से अमृत की कुछ बूंदे गिर गई थी और ये चार स्थान हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन बने। वहीं एक मान्यता साथ में ये भी है कि अमृत के घड़े को लेकर गरुड़ उड़े गए थे और दानवों ने उनका पीछा किया था जिसमें छीना-झपटी हुई और घड़े से अमृत की बूंदें चार स्थानों पर गिर गई। जिनपर बूंदें छलकी उन्हें प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन नाम से पहचाना जाता है। अमृत की ये बूंदें चार जगह गिरी थी:- गंगा नदी (प्रयाग, हरिद्वार), गोदावरी नदी (नासिक), क्षिप्रा नदी (उज्जैन)। सभी नदियों का संबंध गंगा से है। गोदावरी को गोमती गंगा के नाम से पुकारते हैं। क्षिप्रा नदी को भी उत्तरी गंगा के नाम से जानते हैं, यहां पर गंगा गंगेश्वर की आराधना की जाती है। इसलिए इन्हीं चार स्थानों पर कुंभ का मेला लगता रहा है जहां श्रद्धालु स्नान कर पुण्य प्राप्त करते है।  कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सम्मेलन है जिसे "धार्मिक तीर्थयात्रियों की दुनिया की सबसे बड़ी मंडली" के रूप में भी जाना जाता है।

अवश्य आजमाएं भगवान शिव के यह सरल उपाय, देंगे अपार धन

अवश्य आजमाएं भगवान शिव के यह सरल उपाय, देंगे अपार धन 


हिन्दू धर्म में भगवान शंकर को सांसारिक सुखों से जुड़े सारे मनोरथ पूरे करने वाले देवता माना जाता हैं। उन्हें प्रसन्न करने के लिए धर्मग्रंथों में कई उपवास बताए गए हैं। इस सृष्टि का निर्माण भगवान शिव की इच्छा मात्र से ही हुआ है। अत: इनकी भक्ति करने वाले व्यक्ति को संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त हो सकती हैं। शिवजी अपने भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूरी कर देते हैं। शिवपुराण के अनुसार, नियमित रूप से शिवलिंग का पूजन करने वाले व्यक्ति के जीवन में दुखों का सामना करने की शक्ति प्राप्त होती है। शिवजी के पूजन से श्रद्धालुओं की धन संबंधी समस्याएं भी दूर हो जाती हैं।  नियमित रूप से अपनाने वाले व्यक्ति को अपार धन-संपत्ति प्राप्त हो सकती है।कई भक्त अलग-अलग वजहों से व्रत के धार्मिक विधि विधानों का ठीक से पालन नहीं कर पाते है। इसलिए ऐसे भक्तों के लिए जो व्रत नहीं रख पाते हैं वे शिवपुराण में बताए अलग-अलग अनाज का चढ़ावा सुख-सौभाग्य व धन सहित कई मनचाहे फल देने वाला आसान से उपाय कर पूजा कर सकते है। 


चावल यानी अक्षत हमारे ग्रंथों में सबसे पवित्र अनाज माना गया है।  अगर पूजा पाठ में किसी सामग्री की कमी रह जाए तो उस सामग्री का स्मरण करते हुए चावल चढ़ाए जा सकते हैं।  देव पूजा में अक्षत यानी चावल का चढ़ावा बहुत ही शुभ माना जाता है। शिव पूजा में भी महादेव या शिवलिंग के ऊपर चावल (जो टूटे हुए न हो) चढ़ाने से माँ लक्ष्मी की कृपा यानी धन लाभ होता है। शिवपुराण के अनुसार शिवलिंग पर चावल चढ़ाने से भक्त की सभी मनोकामनाएं पूर हो जाती हैं।  मात्र 4 दाने चावल रोज चढ़ाने से  भी अपार ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।  ध्यान रहे चावल टूटे हुए ना हो तथा चावल के दाने साफ़ और स्वच्छ होने चाहिये।  भगवान शंकर की पूजा में सवा किलो चावल शिवलिंग पर चढ़ाएं और पूजा के बाद चावल का दान किसी गरीब व्यक्ति को कर दें।   इसका सफेद रंग शांति का प्रतीक है।  अत: हमारे प्रत्येक कार्य की पूर्णता ऐसी हो कि उसका फल हमें शांति प्रदान करे।  इसीलिए पूजन में अक्षत एक अनिवार्य सामग्री है।  कहा जाता है ऐसा हर सोमवार को करने से सभी मनोकामना पूरी हो जाती है।  यह भी कहा जाता है नौकरी संबंधी परेशानी को दूर करने के लिए घर की छत पर पक्षियों के लिए चावल डालें क्योंकि इससे नौकरी से जुड़ी समस्याएं दूर हो जाती है।  

इसके अलावा भगवान शिव की पूजा के लिए कुछ और आसान उपाय भी हैं :



शिवलिंग के पास रोज रात्रि लगाएं दीपक 
शिवपुराण एक ऐसा शास्त्र है, जिसमें  भगवान शंकर और सृष्टि के निर्माण से जुड़ी कई रहस्यमयी बातें बताई गई हैं। इस पुराण में कई चमत्कारी उपाय बताए गए हैं, जो हमारे जीवन की धन संबंधी समस्या को खत्म करते हैं और अक्षय पुण्य भी प्रदान करते हैं। इन उपायों से पिछले पापों का नाश होता है और भविष्य सुखद बनता है।
यदि आप भी शिवजी की कृपा से धन संबंधी समस्याओं से छुटकारा पाना चाहते हैं तो यहां बताया गया एक और आसान उपाय हर रोज रात को करना चाहिए।  यह उपाय शिव पुराण में बताया गया है।  शाम के समय शिव मंदिर में दीपक लगाने वाले व्यक्ति को अपार धन-संपत्ति एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैं। अत: नियमित रूप से रात्रि के समय किसी भी शिवलिंग के समक्ष दीपक लगाना चाहिए। दीपक लगाते समय 'ओम  नम: शिवाय' मंत्र का जाप भी करना चाहिए।  


  • शिव की तिल से पूजा करने पर मन, शरीर और विचारों से हुए दोष का अंत हो जाता है। सारे तनाव व दबाव की वजहे अचानक दूर हो जाती हैं।
  • अरहर के पत्तों या दाल से शिव की पूजा करने से तन, मन व धन से जुड़े हर तरह के दु:ख दूर हो जाते हैं।
  • जौ चढ़ाकर शिव की पूजा अंतहीन व पीढ़ीयों को सुख देने वाली सिद्ध होती है।