जानिए, क्यों की जाती है देव मूर्ति के चारों ओर परिक्रमा ?


जानिए, क्यों की जाती है देव मूर्ति के चारों ओर परिक्रमा ?


भारतीय संस्कृति में परिक्रमा या प्रदक्षिणा का अपना एक विशेष महत्व एवं स्थान है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसके बांयी तरफ से घूमना। इसे ही प्रदक्षिणा कहते हैं। यह हमारी संस्कृति में अतिप्राचीन काल से चली आ रही है।  विश्व के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है। परिक्रमा करना कोरा अंधविश्वास नहीं, बल्कि यह  विज्ञान सम्मत है।   जिस स्थान या  मंदिर में विधि-विधानानुसार प्राण प्रतिष्ठित देवी देवता की मूर्ति स्थापित की जाती है उस स्थान के मध्य बिंदु से प्रतिमा के कुछ मीटर की दूरी तक उसे शक्ति  की दिव्य प्रभा रहती है,  जो पास में अधिक गहरी और बढ़ती दूरी के हिसाब से कम होती चली जाती है।   ऐसे में प्रतिमा की पास से परिक्रमा करने से शक्तियों के ज्योतिमंडल से निकलने वाले तेज की हमे सहज ही प्राप्ति हो जाती है।  

चूंकि  दैवीय शक्ति की आभा मंडल की गति दक्षिणवर्ती  होती है।  अतः उनकी  दिव्य प्रभा सदैव  भी दक्षिण की ओर गतिमान होती है।  यही कारण है कि दाएं हाथ की ओर से परिक्रमा किया  जाना श्रेष्ठ माना गया है।  यानी दाहिने हाथ की ओर से घूमना ही प्रदक्षिणा का सही अर्थ है।  हम अपने इष्ट देवी-देवता की मूर्ति की, विभिन्न शक्तियों की प्रभा या तेज को परिक्रमा करके प्राप्त कर सकते हैं।  उनका यह तेजदान  वरदान स्वरुप विघ्नों, संकटो विपतियो  का नाश करने में समर्थ होता है।  इसलिए परंपरा है की पूजा-पाठ, अभिषेक आदि कृत्य करने के बाद देवी-देवता की परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए।  प्रदक्षिणा या परिक्रमा करने का मूल भाव स्वयं को शारीरिक तथा मानसिक रूप से भगवान के समक्ष पूर्णरूप से समर्पित कर देना होता है।


कहां जाता है कि प्रतिमा की शक्ति की जितनी अधिक परिक्रमा की जाए उतना ही वह लाभप्रद होती है। फिर भी कृष्ण भगवान की तीन परिक्रमा की जाती है।  देवी जी की एक परिक्रमा करने का विधान है।  आमतौर पर पाँच, ग्यारह  परिक्रमा करने का सामान्य नियम है।  शास्त्रों में भगवान शंकर की परिक्रमा करते समय अभिषेक की धार को न लांघने का  विधान बताया गया है।   इसलिए इनकी पूरी परिक्रमा न कर आधी की जाती है और आधी वापस उसी तरफ लौटकर की जाती है।  मान्यता है की शंकर भगवान के तेज की लहरो की गतियाँ  बाई और दाई दोनों और होती है।  

उल्टी यानी विपरीत वामवर्ती  (बाए हाथ की तरफ से ) परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिमंडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्य परमाणुओं में टकराव पैदा होता है।   परिणामस्वरूप हमारा तेज नष्ट हो जाता है।   इसलिए वामवर्ती परिक्रमा को वर्जित किया गया है।  इसे पाप स्वरुप  बताया गया है।   इसके घातक परिणाम उस दैवीय शक्ति पर निर्भर करते है, जिसकी विपरीत परिक्रमा की गयी है।  जाने या अनजाने में की गई उल्टी परिक्रमा का दुष्परिणाम तो भुगतना ही पड़ता है।   

परिक्रमा करने वाले श्रद्धालुओं को कुछ बातों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।   जिस देवी-देवता की परिक्रमा की जा रही है, उसकी परिक्रमा के दौरान उसका मंत्र जाप मन से करें।   मन में निंदा, बुराई, दुर्भावना, क्रोध, तनाव आदि विकार न आने दे।   जूते, चप्पल निकाल कर नंगे पैर ही परिक्रमा करें।   हंसते-हंसते, बातचीत करते-करते,  खाते पीते, धक्का मुक्की करते हुए परिक्रमा न करें।  परिक्रमा  के दौरान देवी शक्ति से याचना न करे।  देवी-देवता को प्रिय तुलसी, रुद्राक्ष, कमलगट्टे की माला उपलब्ध हो तो धारण करे।  परिक्रमा पूर्ण कर अंत में प्रतिमा को साष्टांग प्रणाम कर श्रद्धा और विश्वास के साथ आशीर्वाद हेतु प्रार्थना करे।  

मंदिर की परिक्रमा  करने का वैज्ञानिक कारण भी हैं। ऐसी मान्यता है कि मंदिर में दर्शन करने और पूजा करने के बाद परिक्रमा करने से सारी सकारात्मक ऊर्जा शरीर में प्रवेश करती है और मन को शांति मिलती है. साथ ही यह भी मान्यता है कि नंगे पांव परिक्रमा करने से अधिक सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है ।

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एक ऐसा मंदिर जहां लेटें हुए हनुमान जी की गंगा मां स्वंय करती है चरण वंदना

एक ऐसा मंदिर जहां लेटें हुए हनुमान जी की गंगा मां स्वंय करती है चरण वंदना 


वैसे तो आज के इस दौर में भगवान के दर्शन हो पाना नामुमकिन हैं, लेकिन उनके चमत्कार आज भी हमें उनकी मौजूदगी का एहसास कराते हैं। एक ऐसा ही चमत्कार आप इलाहाबाद  के संगम तट पर स्थित बड़े हनुमान मंदिर में देख सकते हैं जहां भक्तों को उनकी मौजूदगी का ऐहसास होता है। प्रयागराज (इलाहाबाद) में गंगा यमुना व् सरस्वती नदी के संगम तट पर शक्ति के देवता हनुमान जी का अनूठा मंदिर है।  प्रयागराज (इलाहाबाद) इलाहाबाद में संगम के निकट स्थित यह मंदिर उत्तर भारत के मंदिरों में अद्वितीय है। मंदिर में हनुमान की विशाल मूर्ति आराम की मुद्रा में स्थापित है। यहां पर स्थापित हनुमान जी की प्रतिमा 20 फीट लम्बी है। यह सम्पूर्ण भारत का केवल एकमात्र मंदिर है जिसमें हनुमान जी लेटी हुई मुद्रा में हैं। यहां स्थापित हनुमान की अनूठी प्रतिमा को प्रयाग का कोतवाल होने का दर्जा भी हासिल है। आम तौर पर जहां दूसरे मंदिरों मे प्रतिमाएँ सीधी खड़ी होती हैं। वही इस मन्दिर मे लेटे हुए बजरंग बली की पूजा होती है। हनुमान जी की इस मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि अंग्रेज़ों के समय में उन्हें सीधा करने का प्रयास किया गया था, लेकिन वे असफल रहे थे। जैसे-जैसे लोगों ने ज़मीन को खोदने का प्रयास किया, मूर्ति नीचे धंसती चली गई। कहा जाता है की प्रयागराज (इलाहाबाद) में जब भी कुम्भ का मेला लगता है तो इस चमत्कारिक मंदिर के दर्शन के बाद ही  कुम्भ के संगम का पुण्य  मिलता है।  


यह हनुमान मंदिर, उत्तर प्रदेश के इलाहबाद में हनुमान जी की प्रतिमा वाला एक छोटा किन्तु प्राचीन मंदिर है।संगम तट पर स्थित ये मंदिर काफी पुराना है इसके अलावा इस मंदिर में आज भी चमत्कार देखने को मिलते हैं जहां लेटे हनुमान जी को गंगा मां स्वंय स्नान कराने आती है।  वैसो तो हिन्दू धर्म में तरह-तरह की मान्यताएं हैं। इसी मान्यता की एक रोचक कड़ी के रूप में इस सिद्ध प्रतिमा का अभिषेक खुद मां गंगा करती हैं। हर साल सावन में लेटे हनुमान जी को स्नान कराने के बाद वह वापस लौट जाती हैं। कहा जाता है कि गंगा का जल स्तर तब तक बढ़ता रहता है जब तक कि गंगा हनुमान जी के चरण स्पर्श नहीं कर लेती, चरण स्पर्श के बाद गंगा का जल स्तर अपने आप गिरने लग जाता है और सामान्य हो जाता है। इस दृश्य को देखने इलाहाबाद के आसपास से हजारों लोग पहुंचते है । काफी लोगों के लिए यह चमत्कार जैसा ही है। आपको बता दें गंगा मैया जब स्नान कराकर पीछे चली जाती हैं तब रीति-रिवाज़ के हिसाब से पूजा-अर्चना होती है तथा उसके बाद श्रद्धालुओं के लिए मंदिर के द्वार खोल दिए जाते हैं। जब वर्षा के दिनों में बाढ़ आती है और यह सारा स्थान जलमग्न हो जाता है, तब हनुमानजी की इस मूर्ति को कहीं ओर ले जाकर सुरक्षित रखा जाता है। उपयुक्त समय आने पर इस प्रतिमा को पुन: यहीं लाया जाता है। इस चमत्कार के पीछे भी एक रहस्य छिपा है जो आज हम आपको अपने इस लेख में बताएंगे। 

इस कहानी की रामभक्त हनुमान से शुरूआत के पुनर्जन्म से होती है। रावण  का वध कर और लंका पर विजय प्राप्त के बाद पवनपुत्र हनुमान  अपार कष्ट से पीड़ित होकर मरणासन्न अवस्था में पहुंच गए थे। इसके बाद माता जानकी ने इसी जगह पर उन्हे अपनी सुहाग के प्रतिक सिन्दूर से नई जिंदगी दी और हमेशा  स्वस्थ एवं आरोग्य रहने का आशीर्वाद देते हुए कहा था कि जो भी इस त्रिवेणी तट  पर संगम स्नान पर आएगा उसे संगम स्नान का असली फल तभी मिलेगा जब वह हनुमान जी के दर्शन करेगा।  मां जानकी द्वारा सिन्दूर से जीवन देने की वजह से ही इस मंदिर में बजरंग बली को सिन्दूर चढ़ाये जाने की परम्परा है।  ऐसा  भी कहा जाता है कि जब भारत में औरंगजेब का शासनकाल था तब उसने हनुमान जी की मूर्ती को हटाने का बहुत प्रयास किया था। करीब 100 सैनिकों ने  इस हनुमान जी की मूर्ती को को यहां स्तिथ  किले के पास के मन्दिर से हटाने का प्रयास किया  था। बहुत कोशिशों के बाद मूर्ति यहां से टस से मस नहीं हुई । इसके कुछ दिनों बाद औरंगजेब के सैनिक भी अनेक प्रकार की गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो गए और जिसके बाद औरंगजेब ने इस मूर्ती को हटाने का फैसला छोड़ दिया।

संगम प्रयागराज में आने वाले हर एक श्रद्धालु मंदिर में हनुमान जी को सिंदूर चढ़ाने और उनके दर्शन करने के लिए यहां आते हैं।  कामनाओं के पूरा होने पर हर मंगलवार और शनिवार को यहां मन्नत पूरी होने का झंडा निशान चढ़ाने  के लिए लोग जुलूस की शक्ल मे आते हैं। प्रयागराज में स्थित इस भव्य मंदिर को देखने के लिए श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या में भीड़ लगी रहती है  और देश-विदेश के लोग भी इस मंदिर में दर्शन करने आते हैं। बजरंग बली के लेटे हुए मन्दिर मे पूजा-अर्चना के लिए यूं तो हर रोज ही देश के कोने-कोने से हजारों भक्त आते हैं लेकिन मंदिर के पुजारी आनंद गिरी महाराज के अनुसार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ साथ पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सरदार बल्लब भाई पटेल और चन्द्र शेखर आज़ाद जैसे तमाम विभूतियों ने अपने सर को यहां झुकाया, पूजन किया और अपने लिए और अपने देश के लिए मनोकामना मांगी। यह कहा जाता है कि यहां मांगी गई मनोकामना अक्सर पूरी होती है।

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द्वारकाधीश  मंदिर, द्वारका, गुजरात ❤️

चार धाम में से एक...

यह मंदिर🚩 भगवान श्री कृष्ण को समर्पित है। यह मंदिर गोमती नदी 🚣🏻 के तट पर तथा इस स्थान पर गोमती नदी अरब सागर से मिलती है
यह स्थान द्वापर में 🕉️ भगवान श्री कृष्ण‼️ की राजधानी थी और आज कलयुग में भक्तों 👏 के लिए महा तप तीर्थ है।

💁🏻‍♂️ द्वारकाधीश मंदिर 5 मंजिला इमारत का तथा 72 स्तंभों 🗿द्वारा समर्थित, को जगत मंदिर या त्रिलोक सुन्दर (तीनों लोको 🙌 में सबसे सुन्दर) मंदिर के रूप में जाना जाता है, 📑 पुरातात्विक द्वारा बताया गया हैं कि यह मंदिर🚩 2,200-2000 वर्ष पुराना है

🖐️ 15वीं-16वीं सदी में मंदिर का विस्तार हुआ था 8वीं शताब्दी के 🕉️ हिन्दू धर्मशास्त्रज्ञ और दार्शनिक आदि शंकराचार्य 🧘🏻‍♂️ के बाद, मंदिर भारत में हिंदुओं द्वारा पवित्र माना गया ‘चार धाम’ तीर्थ 🛕 का हिस्सा बन गया। अन्य तीनों में रामेश्वरम, बद्रीनाथ और पुरी ✌️ शामिल हैं।
मंदिर🚩 के आसपास की अन्‍य कलात्‍मक संरचनाओं का निर्माणा 16 वीं शताब्‍दी 👊 में करवाया गया था।🙏

मंदिर 🛕 के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान कृष्‍ण 🦚 की श्‍यामवर्णी चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है
😯 यहां पर उन्‍हें रणछोड़ 🛐 जी के नाम से भी जाना जाता है यहां से 56 सीढियां 📏 चढ़कर स्‍वर्ग द्वार से मंदिर में प्रवेश किया जाता है।

🚩!! जय श्री कृष्णा !!🚩
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तिरूपति भगवान वेंकटेश्‍वर की मूर्ति की कुछ अनोखी बातें ।।

तिरूमाला वेंकटेश्वर मंदिर, आंध्र प्रदेश के हिल शहर तिरूमाला में स्थित भगवान वेंकटेश्वर का प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है। इस मंदिर को भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है।    जानिये भगवान तिरुपति बालाजी की अनोखी कहानी ।
यह मंदिर, वेंकटाद्री पहाड़ी पर बना हुआ है जो तिरूमाला की सात पहाडियों में से एक पहाड़ी है। कई लोग इस मंदिर को सात पहाडियों का मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर में भगवान श्रीनिवास या बालाजी या वेंकटाचालपैथी की आराधना की जाती है जो हिंदूओं के प्रमुख देवता थे। इस मंदिर के बारे में कई कहानियां व दंत कथाएं कही जाती हैं, साथ ही कई रहस्‍य भी हैं।

आइए जानते हैं वेंकटेश्‍वर मंदिर से जुड़ी कुछ रहस्‍यमयी बातें :

1. मंदिर के मुख्‍य प्रवेश द्वार पर, दाईं ओर एक एक छड़ी रहती है जिसका इस्‍तेमाल वहां उपस्थिति वेंकटेश्‍वर स्‍वामी को हिट करने के लिए अनंतालवर के द्वारा किया जाता था। जब इस छड़ का इस्‍तेमान नन्‍हे बालक के रूप में वेंकटेश्‍वर को मारने के लिए किया गया था, तो उनकी ठोड़ी पर चोट लग गई थी। तब से वेंकटेश्‍वर को चंदन का लेप ठोडी पर लगाये जाने की शुरूआत की गई।

2. इस मंदिर में वेंकटेश्‍वर स्‍वामी की मूर्ति पर लगे हुए बाल उनके असली बाल हैं। ऐसा कहा जाता है कि ये बाल कभी उलझते नहीं है और हमेशा इतने ही मुलायम रहते हैं।

3. इस मंदिर से 23 किमी. दूर एक गांव स्थित है। इस गांव में सिर्फ वही लोग आ जा सकते हैं जो इस गांव के निवासी हो। इस गांव के लोग, सख्‍त नियमों के साथ अपना जीवन बिताते हैं। इसी गांव से भगवान वेंकटेश्‍वर के लिए, फूल, दूध, घी, मक्‍खन आदि सामग्री जाती है।

4. वेंकटेश्‍वर स्‍वामी की स्‍थापना, गर्भ गुदी के मध्‍य में की गई है, ऐसा प्रतीत होता है। लेकिन वास्‍तव में, जब आप इसे बाहर से खड़े होकर देखें, तो पाएंगे कि यह मंदिर के दाईं ओर स्थित है।

5. मूर्ति पर चढ़ाये जाने वाले सभी फूलों और तुलसी पत्रों को भक्‍तों में न बांटकर, परिसर के पीछे बने पुराने कुएं में फेंक दिया जाता है।

6. स्‍वामी का पिछला हिस्‍सा सदैव नम रहता है। अगर आप ध्‍यान से कान लगाकर सुनें तो आपको सागर की आवाज सुनाई देती है।

7. गुरूवार के दिन, मंदिर में निज रूप दर्शनम् का आयोजन किया जाता है, जिसमें सफेद चंदन के पेस्‍ट से स्‍वामी को रंग दिया जाता है। जब इस लेप को हटाया जाता है तो माता लक्ष्‍मी के चिन्‍ह् बने रह जाते हैं। इन चिन्‍हों को मंदिर के अधिकारियों द्वारा बेच दिया जाता है।

8. जिस प्रकार जब किसी की मृत्‍यु हो जाती है तो पीछे मुड़कर नहीं देखा जाता है और न ही रोशनी की जाती है। उसी प्रकार, इस मंदिर के पुजारी, पूरे दिन मूर्ति के पुष्‍पों को पीछे फेंकते रहते हैं और उन्‍हें नहीं देखते हैं। मंदिर में चढाये जाने वाले फूलों को दूर स्थित एक विशेष गांव से लाया जाता है।

9. इस मंदिर में एक दीया कई सालों से जल रहा है किसी को नहीं ज्ञात है कि इसे कब जलाया गया था।

10. 1800 में, इस मंदिर को कुल 12 वर्षों के लिए बंद कर दिया गया था। उस दौरान, एक राजा ने 12 लोगों को दंडस्‍वरूप मौत की सजा दी और मंदिर की दीवार पर लटका दिया। कहा जाता है कि उस समय विमान वेंकटेश्‍वर स्‍वामी प्रकट हुए थे।

11. बालाजी की मूर्ति पर पचाई कर्पूरम चढ़ाया जाता है जो कपूर से मिलकर बना होता है। अगर इसे किसी साधारण पत्‍थर पर चढाया जाये, तो वह कुछ ही समय में चटक जाये, लेकिन मूर्ति पर इसका प्रभाव नगण्‍य रहता है।

12. मूर्ति का तापमान 110 फारेनहाईट रहता है, जबकि इसे प्रतिदिन सुबह 4:30 बजे ही जल, दूध से स्‍नान करा दिया जाता है। स्‍नान कराने के बाद मूर्ति से पसीना आता है जिसे पोंछा जाता है।
 ```हरे कृष्ण
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श्री गणेश की दाईं सूंड या बाईं सूंड (पुनः प्रेषित)
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 अक्सर श्री गणेश की प्रतिमा लाने से पूर्व या घर में स्थापना से पूर्व यह सवाल सामने आता है कि श्री गणेश की कौन सी सूंड होनी... चाइये ?

 क्या कभी आपने ध्यान दिया है कि भगवान गणेश की तस्वीरों और मूर्तियों में उनकी सूंड दाई या कुछ में बाई ओर होती है। सीधी सूंड वाले गणेश भगवान दुर्लभ हैं। इनकी एकतरफ मुड़ी हुई सूंड के कारण ही गणेश जी को वक्रतुण्ड कहा जाता है।
भगवान गणेश के वक्रतुंड स्वरूप के भी कई भेद हैं। कुछ मुर्तियों में गणेशजी की सूंड को बाई को घुमा हुआ दर्शाया जाता है तो कुछ में दाई ओर। गणेश जी की सभी मूर्तियां सीधी या उत्तर की आेर सूंड वाली होती हैं। मान्यता है कि गणेश जी की मूर्त जब भी दक्षिण की आेर मुड़ी हुई बनाई जाती है तो वह टूट जाती है। कहा जाता है कि यदि संयोगवश आपको दक्षिणावर्ती मूर्त मिल जाए और उसकी विधिवत उपासना की जाए तो अभिष्ट फल मिलते हैं। गणपति जी की बाईं सूंड में चंद्रमा का और दाईं में सूर्य का प्रभाव माना गया है।
प्राय: गणेश जी की सीधी सूंड तीन दिशाआें से दिखती है। जब सूंड दाईं आेर घूमी होती है तो इसे पिंगला स्वर और सूर्य से प्रभावित माना गया है। एेसी प्रतिमा का पूजन विघ्न-विनाश, शत्रु पराजय, विजय प्राप्ति, उग्र तथा शक्ति प्रदर्शन जैसे कार्यों के लिए फलदायी माना जाता है।
वहीं बाईं आेर मुड़ी सूंड वाली मूर्त को इड़ा नाड़ी व चंद्र प्रभावित माना गया है। एेसी  मूर्त  की पूजा स्थायी कार्यों के लिए की जाती है। जैसे  शिक्षा, धन प्राप्ति, व्यवसाय, उन्नति, संतान सुख, विवाह, सृजन कार्य और पारिवारिक खुशहाली।
सीधी सूंड वाली मूर्त का सुषुम्रा स्वर माना जाता है और इनकी आराधना रिद्धि-सिद्धि, कुण्डलिनी जागरण, मोक्ष, समाधि आदि के लिए सर्वोत्तम मानी गई है। संत समाज एेसी मूर्त की ही आराधना करता है। सिद्धि विनायक मंदिर में दाईं आेर सूंड वाली मूर्त है इसीलिए इस मंदिर की आस्था और आय आज शिखर पर है।

कुछ विद्वानों का मानना है कि दाई ओर घुमी सूंड के गणेशजी शुभ होते हैं तो कुछ का मानना है कि बाई ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी शुभ फल प्रदान करते हैं। हालांकि कुछ विद्वान दोनों ही प्रकार की सूंड वाले गणेशजी का अलग-अलग महत्व बताते हैं।
यदि गणेशजी की स्थापना घर में करनी हो तो दाई ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी शुभ होते हैं। दाई ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी सिद्धिविनायक कहलाते हैं। ऎसी मान्यता है कि इनके दर्शन से हर कार्य सिद्ध हो जाता है। किसी भी विशेष कार्य के लिए कहीं जाते समय यदि इनके दर्शन करें तो वह कार्य सफल होता है व शुभ फल प्रदान करता है।इससे घर में पॉजीटिव एनर्जी रहती है व वास्तु दोषों का नाश होता है।

घर के मुख्य द्वार पर भी गणेशजी की मूर्ति या तस्वीर लगाना शुभ होता है। यहां बाई ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी की स्थापना करना चाहिए। बाई ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी विघ्नविनाशक कहलाते हैं। इन्हें घर में मुख्य द्वार पर लगाने के पीछे तर्क है कि जब हम कहीं बाहर जाते हैं तो कई प्रकार की बलाएं, विपदाएं या नेगेटिव एनर्जी हमारे साथ आ जाती है। घर में प्रवेश करने से पहले जब हम विघ्वविनाशक गणेशजी के दर्शन करते हैं तो इसके प्रभाव से यह सभी नेगेटिव एनर्जी वहीं रूक जाती है व हमारे साथ घर में प्रवेश नहीं कर पाती।
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चंद्रकेश्वर महादेव🚩🚩🚩

च्यवन ऋषि की तपोभूमि पर चंद्रकेश्वर महादेव,स्वयं माता नर्मदा यहां प्रकट हुई थीं। बारह महीने जलमग्न रहता है शिवलिंग!

भारत में भगवान शिव के अनेक ऐसे मंदिर हैं, जिनके बारे में जानकर श्रद्धालु हैरान रह जाते हैं। लेकिन अगर कोई आपसे कहे कि भोलेनाथ एक मंदिर में पूरे 12 महीने जलमग्न रहते हैं तो शायद आप यकीन न करें। लेकिन यह सच है। मध्य प्रदेश के देवास के चापड़ा में एक ऐसा अनूठा मंदिर है, जिसमें भगवान शिव 12 महीने जलमग्न रहते हैं। भोले के भक्त पानी के अंदर से ही उनकी आराधना करते हैं। आइए जानते हैं, इस अनोखे मंदिर की कहानी और सावन में इसके दर्शन का महत्व।

टीले पर बना शिवजी का मंदिर, अजब है मूर्ति का स्वरूप और पूरी होती है यह मनोकामना

इस मंदिर का नाम चंद्रकेश्वर मंदिर है और यह इंदौर से 65 किलोमीटर दूर इंदौर-बैतूल राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। मंदिर सतपुड़ा की पहाड़ियों और घने जंगल से चारों ओर से घिरा हुआ है। प्राकृतिक सुंदरता से सराबोर इस मंदिर में हमेशा भक्तों की भीड़ रहती है। धार्मिक मान्यता है कि मंदिर में स्थापित शिवलिंग करीब 3 हजार साल पुराना है। यहां पर मुख्य मंदिर के साथ राम दरबार और हनुमानजी का मंदिर भी है। हालांकि मंदिर की स्थापना से जुड़ी एक पौराणिक कथा के अनुसार, औषधि रूपी च्यवनप्राश को विकसित करने वाले च्यवन ऋषि ने इस चंद्रकेश्वर मंदिर की स्थापना की थी। स्वयं माता नर्मदा यहां प्रकट हुई थीं। इस तीर्थस्थली का उल्लेख भागवत पुराण में भी मिलता है।

मंदिर के समीप ही चंद्रकेश्वर नदी बहती है। मंदिर के पास ही एक झरना है। इसमें स्नानकर लोग भगवान की पूजा-अर्चना करते हैं। यहां चार गुफाएं भी हैं। इनके बारे में बताया जाता है यह करीब 500 साल पुरानी हैं। मुख्य मंदिर से लगा घना वटवृक्ष है और पास से ही चंद्रकेश्वर नदी गुजरती है, जो आगे जाकर चंद्रकेश्वर डैम (बांध) में मिलती है।

मान्यता है कि च्यवन ऋषि के आह्वान पर ही मां नर्मदा गुप्त रूप से प्रकट हुई थीं और शिवलिंग का प्रथम अभिषेक किया था। तभी से यहां एक वटवृक्ष से जलधारा निकलती है, जिससे शिवलिंग जलमग्न रहता है। ऐसा कहा जाता है कि च्यवन ऋषि ने इस भूमि पर तप किया था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं मां नर्मदा ने प्रकट होकर दर्शन दिए थे और कहा था कि ‘आपकी तपस्या से प्रसन्न होकर मैं इस मंदिर में प्रकट हो रही हूं।’
कहा जाता है कि दुनिया में ऐसे तीन ही मंदिर थे, जिनमें से अब एक ही जीवंत स्थिति में है।मंदिर के पुजारी के अनुसार इस मंदिर का इतिहास च्यवन ऋषि से जुड़ा है। कहते हैं कि उन्होंने यहां तपस्या की थी। उन्होंने ही इस मंदिर की स्थापना की थी। वे रोज स्नान के लिए 60 किमी दूर नर्मदा तट पर जाते थे। ऐसी मान्यता है कि उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं मां नर्मदा ने उन्हें दर्शन दिए थे और कहा था कि मैं स्वयं आपके मंदिर में प्रकट हो रही हूं। इस पर ऋषि ने कहा कि मैं ये कैसे समझ पाऊंगा की आप स्वयं मेरे मंदिर में प्रकट हुई हैं। इसके बाद उन्होंने अपना गमछा नर्मदा तट पर छोड़ दिया। कथा के अनुसार अगले दिन मंदिर में जलधारा फूट पड़ी और उनका गमछा भगवान शिव पर लिपटा हुआ मिला।

सप्त ऋषियों ने भी किया है तप
च्यवन ऋषि के बाद सप्त ऋ षियों ने भी यहां तप किया था। यहां उनके नाम का एक कुंड भी बना हुआ है। कहते हैं इस कुंड में स्नान से पापों से मुक्ति मिल जाती है। यहां सावन मास में रुद्राभिषेक किया जाता है। वैसे तो यहां लोगों का दर्शनार्थ आना-जाना रहता है, लेकिन श्रावण में श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ जाती है।

दर्शनीय और  ऐतिहासिक  स्थल है
मंदिर में शिवमंदिर के अलावा भी कई दर्शनीय और ऐतिहासिक स्थल हैं। यहां परमार और प्रतिहार काल की कई अद्भुत प्रस्तरशिल्प पाए जाते हैं। मंदिर के पास ही एक ही पत्थर पर उकेरी गई प्रतिहार कालीन दुर्लभ प्रतिमा है। कहते हैं ये प्रतिम सैकड़ों वर्ष पुरानी है यहां कुछ गुफा और सदियों पुराने किले के अवशेष के अलावा श्रीविष्णु गोशाला श्रीराम मंदिर, अंबे माता मंदिर, हनुमान मंदिर मौजूद हैं।

हर हर महादेव.
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एक मंदिर ऐसा, जहां लेटे हुए हनुमान जी होती है पूजा
एक अनोखा शिवलिंग जिसकी पूजा हिन्दू मुस्लिम दोनों करते है।

एक अनोखा मंदिर जिसमे भोलेनाथ पूरे 12 महीने रहते हैं जलमग्न

एक अनोखा मंदिर जिसमे भोलेनाथ पूरे 12 महीने रहते हैं जलमग्न 


यूं तो पूरे भारत में ही भगवान शिव के मंदिर मौजूद हैं और विशेष महत्व भी रखते हैं और  जिनके बारे में जानकर श्रद्धालु हैरान रह जाते हैं, पर क्या आपको पता है भारत में एक ऐसी जगह भी है जहाँ भगवान शिव सदैव जलमग्न रहते हैं।  लेकिन यह सच है। मध्य प्रदेश के देवास के चापड़ा में एक ऐसा अनूठा मंदिर है, जिसमें भगवान शिव 12 महीने जलमग्न रहते हैं। भोले के भक्त पानी के अंदर से ही उनकी आराधना करते हैं। सावन माह के दौरान भगवान शिव की विशेष अनुकंपा प्राप्त करने के लिए भक्त पूरी श्रद्धा से पूजा करते हैं। कहते हैं इस माह में शिव का रुद्राभिषेक करने से मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। इसलिए इस महीने शिव भक्त बड़ी संख्या में रुद्राभिषेक करते हैं। कुछ श्रद्धालु पूरे सावन हर दिन शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं।भारत में भगवान शिव के अनेक ऐसे मंदिर हैं,।  कहा जाता है कि दुनिया में ऐसे तीन ही मंदिर थे, जिनमें से अब एक ही जीवंत स्थिति में है। यहां सावन मास में रुद्राभिषेक किया जाता है। वैसे तो यहां लोगों का दर्शनार्थ आना-जाना रहता है, लेकिन सावन के महीने  में श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ जाती है। आइए जानते हैं, इस अनोखे मंदिर की कहानी और सावन में इसके दर्शन का महत्व।

इस मंदिर का नाम चंद्रकेश्वर मंदिर है और यह इंदौर से 65 किलोमीटर दूर इंदौर-बैतूल राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। इंदौर, मध्य प्रदेश से 65 किमी की दूरी पर देवास के चापड़ा में चंद्रकेश्वर मंदिर स्थित है, जो कि इंदौर-बैतूल राष्ट्रीय राजमार्ग से लगी हुयी जगह है | चूँकि यह जगह चारो तरफ से सतपुड़ा की पहाड़ियों व जंगलो से घिरी हुयी है, अत: यहाँ का वातावरण यहाँ आने वालों के दिल को लुभा जाता है | साल भर यहाँ आने वाले भक्तो का ताँता लगा रहता है | प्राकृतिक सुंदरता से सराबोर इस मंदिर में हमेशा भक्तों की भीड़ रहती है। धार्मिक मान्यता है कि मंदिर में स्थापित शिवलिंग करीब 3 हजार साल पुराना है। यहां पर मुख्य मंदिर के साथ राम दरबार और हनुमानजी का मंदिर भी है। 

मंदिर के समीप ही चंद्रकेश्वर नदी बहती है। मंदिर के पास ही एक झरना है। इसमें स्नानकर लोग भगवान की पूजा-अर्चना करते हैं। यहां चार गुफाएं भी हैं। इनके बारे में बताया जाता है यह करीब 500 साल पुरानी हैं। मुख्य मंदिर से लगा घना वटवृक्ष है और पास से ही चंद्रकेश्वर नदी गुजरती है, जो आगे जाकर चंद्रकेश्वर डैम (बांध) में मिलती है।

हालांकि मंदिर की स्थापना से जुड़ी एक पौराणिक कथा के अनुसार, औषधि रूपी च्यवनप्राश को विकसित करने वाले च्यवन ऋषि ने इस चंद्रकेश्वर मंदिर की स्थापना की थी। स्वयं माता नर्मदा यहां प्रकट हुई थीं। इस तीर्थस्थली का उल्लेख भागवत पुराण में भी मिलता है। तभी से यहां एक वटवृक्ष से जलधारा निकलती है, जिससे शिवलिंग जलमग्न रहता है। ऐसा कहा जाता है कि च्यवन ऋषि ने इस भूमि पर तप किया था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं मां नर्मदा ने प्रकट होकर दर्शन दिए थे।  'इतनी ही नहीं च्यवन ऋषि के बाद भी कई ऋषियों ने यहाँ तप किया था, जिनमें सप्त ऋषि प्रमुख थे । चूँकि सप्त ऋषियों ने भी यहाँ पर तप किया था अत: यहाँ पर उनके नाम का भी एक कुंड मौजूद है, जिसमे स्नान करने से इन्सान को सभी पापों से मुक्ति प्राप्त होती है | 

देखने लायक ये है जगह -  मंदिर के पास कई दर्शनीय और ऐतिहासिक स्थल हैं। यहां परमार और प्रतिहार काल की कई अद्भुत प्रस्तरशिल्प पाए जाते हैं। मंदिर के पास ही एक ही पत्थर पर उकेरी गई प्रतिहार कालीन दुर्लभ प्रतिमा है। कहते हैं ये प्रतिम सैकड़ों वर्ष पुरानी है- यहां कुछ गुफा और सदियों पुराने किले के अवशेष के अलावा श्रीविष्णु गोशाला श्रीराम मंदिर, अंबे माता मंदिर, हनुमान मंदिर मौजूद हैं।

किस्मत चमकाने और धनवान बनने के लिए करें सूर्य उपासना

किस्मत चमकाने और धनवान बनने के लिए करें सूर्य उपासना


सूर्य की उपासना के बिना किसी का कल्याण संभव नहीं है।   भले ही अमरत्व प्राप्त करने वाले देव ही क्यों न हो।  शास्त्रों में कहा गया है की सूर्य को अधर्य दिए बिना भोजन करना, पाप खाने के सामान है।  भारतीय पद्धति के अनुसार सूर्य की उपासना किये बिना कोई भी मानव किसी भी शुभ कर्म का अधिकारी नहीं बन सकता।  

सक्रांति व् सूर्य छटी के अवसर पर सूर्य की उपासना का विशेष विधान बनाया गया है।  नियमानुसार हर रविवार को सूर्य की उपासना की जाती है क्योकि रविवार सूर्य का दिन माना गया है।  पौराणिक धार्मिक ग्रंथों में भगवान सूर्य के अर्घ्यदान की विशेष महत्ता बताई गई है।  महाभारत ग्रंथ के अनुसार कर्ण रोज सुबह सूर्य पूजा करते थे। कई कथाओं में बताया गया है कि भगवान श्रीराम भी प्रति द‌िन सूर्य को जल चढ़ाकर पूजा करते थे।प्रतिदिन प्रात:काल में तांबे के लोटे में जल लेकर और उसमें लाल फूल, चावल डालकर प्रसन्न मन से गायत्री मंत्र का जप करते हुए भगवान सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए। जल चढ़ाते समय सूर्य मंत्र ऊँ सूर्याय नम: का जाप भी करना चाहिए। इसके अलावा हम सूर्य को जल चढ़ाते समय भगवन सूर्य के बारह नामो को भी बोल सकते है।  ऐसा करने से सूर्यदेव की विशेष कृपा प्राप्त होती है। यह बारह नाम इस प्रकार है :-
ॐ सूर्याय नम: ।  ॐ भास्कराय नम:।  ॐ रवये नम: ।
 ॐ मित्राय नम: ।  ॐ भानवे नम:  ॐ खगय नम: ।
ॐ पुष्णे नम: ।  ॐ मारिचाये नम: ।  ॐ आदित्याय नम: ।
 ॐ सावित्रे नम: ।  ॐ आर्काय नम: ।  ॐ हिरण्यगर्भाय नम: ।

इस प्रकार के अर्घ्यदान से भगवान ‍सूर्य प्रसन्न होकर आयु, आरोग्य, धन, धान्य, पुत्र, मित्र, तेज, यश, विद्या, वैभव और सौभाग्य को प्रदान करते हैं।  


पौराणिक धार्मिक ग्रंथों में भगवान सूर्य के अर्घ्यदान की विशेष महत्ता बताई गई है।  प्रात:काल का सूर्य कोमल होता है उसे सीधे देखने से आंखों की ज्योति बढ़ती है।  सूर्य को जल धीमे-धीमे इस तरह चढ़ाएं कि जलधारा धरती पर न गिरके किसी पात्र में गिरे और फिर उस जल को पोधो में डाल दे। जमीन पर जलधारा गिरने से जल में समाहित सूर्य-ऊर्जा धरती में चली जाएगी और सूर्य अर्घ्य का संपूर्ण लाभ आप नहीं पा सकेंगे। सूर्य को जल अर्पित करने के बाद अपने स्थान पर ही तीन बार घुम कर परिक्रमा करें। कहा जाता है कि सूर्य की उपासना करने वाले मनुष्य जो कुछ सामग्री सूर्य के लिए अर्पित करते है , भगवान् भास्कर अर्थात सूर्य उन्हें लाख गुना करके वापस लोटा देते है।  सूर्य की आराधना इसलिए भी की जानी चाहिए क्योकि वह मनुष्य के शुभ और अशुभ कर्मो के साक्षी है।  उनसे हमारा कोई भी कार्य या व्यवहार छिपा नहीं रह सकता।  जिन लोगों को घर-परिवार और समाज में मान-सम्मान चाहिए, जिन्हें हमेशा कोई अज्ञात भय सताता रहता है, जो निराशावादी हों, जिन लोगों की कुंडली में सूर्य कमजोर हो तथा जिनमें आत्म-विश्वास की कमी हो, इन सब लोगो को सुबह जल्दी उठकर सूर्य को जल जरूर चढाना चाहिये।  

गंगा को पवित्र नदी क्यों कहा जाता है तथा क्यों पवित्र है गंगा जल ?

गंगा को पवित्र नदी क्यों कहा जाता है तथा क्यों पवित्र है गंगा जल ?



ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वी पर गंगा का अवतरण राजा भागीरथ के कठिन तप से हुआ था।  राजा भागीरथ के 5500 सालों की घोर तपस्या से खुश होकर देवी गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुईं।  गंगा नदी भारत की सबसे लंबी नदी है और दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। गंगा प्राचीन काल से ही भारतीय लोगो में अत्यंत पूजनीय रही है।  इसका धार्मिक महत्व जितना है , विश्व में शायद ही किसी नदी का होगा।  यह विश्व की एकमात्र नदी है, जिसे श्रद्धा से माता कहकर पुकारा जाता है।  गंगा नदी को भारत में सबसे ज्यादा पवित्र माना जाता है। सनातन धर्म के सबसे पवित्र और पुरातन ग्रंथ 'ऋगवेद' में भी गंगा नदी का जिक्र है।  इस ग्रंथ में गंगा को जाह्नवी कहा गया है। गंगा नदी अपने विशेष जल और इसके विशेष गुण के कारण मूल्यवान मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि गंगा का जन्म भगवान् विष्णु के पैरों से हुआ था।  साथ ही यह भी माना जाता है की माँ गंगा शिव जी की जटाओं में निवास करती हैं।   गंगा स्नान , पूजन और दर्शन करने से पापों का नाश होता है, व्याधियों से मुक्ति होती है।  जो तीर्थ गंगा किनारे बसे हुए हैं, वे अन्य की तुलना में ज्यादा पवित्र माने जाते हैं। गंगा नदी के किनारे बहुत सारे तीर्थ स्थल हैं, जिनमें इलाहाबाद, वाराणसी, कानपुर, पटना और हरिद्वार मुख्य हैं।  घर हो या मंदिर हर कहीं शुभ कार्यों के लिए गंगा जल का प्रयोग किया जाता है।  हिंदू धर्म में किसी के भी जन्म या मृत्यु के बाद गंगा जल से घर को शुद्ध करने की परंपरा है। साथ ही, यदि कोई मरने की स्थिति में हो तो उसे गंगा जल पिलाने और दाह संस्कार के बाद उसकी राख को गंगा के पवित्र जल में प्रवाहित करने की भी पंरपरा रही है, क्योंकि धार्मिक मान्यताओं में गंगा पापों का नाश कर मोक्ष देने वाली देव नदी मानी गई है।  एक अध्ययन में यह भी पाया गया है कि गंगा के पानी ने मच्छर प्रजनन नहीं करते जबकि दूसरे पानी में मलेरिया के मच्छर प्रजनन करते हैं।  इस प्रकार के गुण अन्य किसी नदी के जल में नहीं पाए गए हैं। इस तरह गंगा जल धर्म भाव के कारण मन पर और विज्ञान की नजर से तन पर सकारात्मक प्रभाव देने वाला है। शायद इसीलिए हमारे ऋषियों ने गंगा को पवित्र नदी माना होगा। इसीलिए इस नदी का जल कभी सड़ता नहीं है। यह  केवल धार्मिक नजरिए से ही पवित्र नहीं है, बल्कि विज्ञान ने भी गंगा के जल को पवित्र माना है।


गंगा जल पर किये शोध कार्यो से स्पष्ट है की वह वर्षो तक रखने पर भी ख़राब नहीं होता है।  स्वास्थवर्धक तत्वों की अधिकता होने के कारण गंगा का जल अमृत के तुल्य, सर्व रोगनाशक, पाचक, मीठा, उत्तम, ह्रदय के लिए हितकर, आयु बढ़ाने वाला तथा त्रिदोष नाशक होता है।  कई इतिहासकार भी बताते हैं कि सम्राट अकबर स्वयं तो गंगा जल का सेवन करते ही थे, मेहमानों को भी गंगा जल पिलाते थे। वे लिखते हैं कि अंग्रेज़ जब कलकत्ता से वापस इंग्लैंड जाते थे, तो पीने के लिए जहाज में गंगा का पानी ले जाते थे, क्योंकि वह सड़ता नहीं था। इसके विपरीत अंग्रेज़ जो पानी अपने देश से लाते थे वह रास्ते में ही सड़ जाता था। गंगा जल में पर्याप्त तत्व जैसे कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम आदि पाए जाते है और 45 प्रतिशत क्लोरीन होता है जो जल में कीटाणुओं को पनपने से रोकता है।  इसी की उपस्थिति के कारण पानी सड़ता नहीं और न ही उसमे कीटाणु पैदा होते है।  गंगा जल की वैज्ञानिक खोजों ने साफ कर दिया है कि गंगा गोमुख से निकलकर मैदानों में आने तक अनेक प्राकृतिक स्थानों, वनस्पतियों से होकर प्रवाहित होती है। इसलिए गंगा जल में औषधीय गुण पाए जाते हैं जो व्यक्ति को शक्ति प्रदान करते हैं। यह जल सभी तरह के रोग काटने की दवा भी है। वैज्ञानिक कहते हैं कि गंगा के पानी में बैक्टीरिया को खाने वाले बैक्टीरियोफ़ाज वायरस होते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया की तादाद बढ़ते ही सक्रिय होते हैं और बैक्टीरिया को मारने के बाद फिर छिप जाते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया की तादाद बढ़ते ही सक्रिय होते हैं और बैक्टीरिया को मारने के बाद फिर छिप जाते हैं। जिससे गंगा का जल लंबे समय तक प्रदूषित नहीं होता है। गंगा के पानी में प्रचूर मात्रा में गंधक भी होता है, इसलिए यह लंबे समय तक खराब नहीं होता और इसमें कीड़े नहीं पैदा होते। हालांकि इन गुणों के पीछे का कारण अभी बहुत हद तक अज्ञात है, कुछ लोग इसे चमत्कार कहते हैं और कुछ लोग इसे जड़ी-बूटियों और आयुर्वेद से जोड़ते हैं।  विज्ञान भी इसके दैवीय गुणों को स्वीकार करता है।  अध्यात्मिक जगत में इसको सकारात्मक उर्जा का चमत्कार कह सकते हैं।  


गंगा स्नान की महिमा 
कहा जाता है जैसे अग्नि ईंधन को जला देती है, उसी प्रकार सैकड़ो निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगा स्नान किया जाये तो उसका जल उनके सब पापो को  भस्म कर देता है। कुरुक्षेत्र में स्नान करके मनुष्य पुण्य प्राप्त कर सकता है, पर कनखल और प्रयाग में स्नान  अपेक्षाकृत अधिक विशेष है। प्रयाग के स्नान को अधिक पवित्र माना गया है। गंगा में स्नान करने या इसका जल पीने का पुण्य पूर्वजों की सातवीं पीढ़ी तक पहुंचता है। जिन-जिन स्थानों से होकर गंगा बहती हैं, उन स्थानों को पवित्र माना गया है।गंगा स्नान से पुण्य प्राप्ति के लिए श्रद्धा आवश्यक है। कहा गया है कि शुक्ल प्रतिपदा को गंगा स्नान नित्य स्नान से सौ गुना लाभदायक होता है। गंगा दशहरा पर गंगा स्नान व दान की भारी महिमा है। गंगा दशमी को व्रत करने से भगवान विष्णु जी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। संक्रांति के दिन का स्नान नित्य स्नान से हजार गुना और  चंद्र-सूर्य ग्रहण का स्नान लाख गुना लाभदायक है। चंद्रग्रहण सोमवार को तथा सूर्यग्रहण रविवार को पड़ने पर उस दिन का गंगा स्नान असंख्य गुना पुण्यकारक होता है।

अपरा एकादशी पर विष्णु भगवान की पूजा करने से हो जाती हैं सभी मनोकामनाएं पूरी।

अपरा एकादशी पर विष्णु भगवान की पूजा करने से हो जाती हैं सभी मनोकामनाएं पूरी।  


अपरा एकादशी के दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा की जाती है. मान्यता है कि इस दिन विधि-विधान से पूजा अर्चना करने से भगवान विष्णु की कृपा अवश्य मिलती है।  अपरा एकादशी को अचला एकादशी भी कहते हैं ।सोमवार, 18 मई को अपरा एकादशी है। इस दिन विधि-विधान से भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। एकादशी के दिन विष्णु भगवान की पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं और भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। अपरा या कहें अचला एकादशी का हिंदू धर्म में बहुत अधिक महत्व माना जाता है। मान्यता है कि इस एकादशी का उपवास रखने से पापी से पापी मनुष्य के पाप भी कट जाते हैं और अपार खुशियां मिलती हैं। मकर संक्रांति के समय गंगा स्नान, सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र और शिवरात्रि के समय काशी में स्नान करने से जो पुण्य मिलता है उसके समान पुण्य की प्राप्ति अपरा एकादशी के व्रत से होती है। हालांकि समस्त एकादशियों में ज्येष्ठ मास की शुक्ल एकादशी जिसे निर्जला एकादशी कहते हैं सर्वोत्तम मानी जाती है लेकिन ज्येष्ठ महीने की ही कृष्ण एकादशी भी कम नहीं मानी जा सकती। इस एकादशी को अपरा (अचला) एकादशी कहा जाता है। पदमपुराण के अनुसार इस व्रत को करने वाले मनुष्य को जीते जी ही नहीं बल्कि मृत्यु के बाद भी लाभ मिलता है। अपरा एकादशी का पुण्‍य अपार है. कहते हैं कि इस एकादशी का व्रत करने से व्‍यक्ति के सभी पाप नष्‍ट हो जाते हैं और वह भवसागर से तर जाता है।  मान्‍यता है कि इस दिन 'विष्‍णुसहस्त्रानम्' का पाठ करने  से सृष्टि के पालनहार श्री हरि विष्‍णु की विशेष कृपा बरसती है।  जो लोग एकादशी का व्रत नहीं कर रहे हैं उन्‍हें भी इस दिन भगवान विष्‍णु का पूजन करना चाहिए और चावल का सेवन नहीं करना चाहिए। 

जब धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगे कि- हे भगवन्! ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी का क्या नाम है तथा उसका माहात्म्य क्या है, सो कृपा कर कहिए।  तब भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजन यह एकादशी ‘अचला’ तथा 'अपरा' दो नामों से जानी जाती है। यह व्रत पापरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। पापरूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि, पापरूपी अंधकार को मिटाने के लिए सूर्य के समान, मृगों को मारने के लिए सिंह के समान है। अत: मनुष्य को पापों से डरते हुए इस व्रत को अवश्य करना चाहिए।

इस बार अपरा एकादशी 18 मई 2020 सोमवार को पड़ रही है. अपरा एकादशी पर विष्णु भगवान की पूजा अर्चना का भी अपना अलग महत्व होता है । अपरा एकादशी पर श्रद्धालु पूरा दिन व्रत रहकर शाम के समय भगवान विष्णु की पूजा अर्चना करते हैं जिससे उनको मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है ।  मान्यता है कि अपनी गलतियों की क्षमा प्राप्ति के लिए अपरा एकादशी पर विधि विधान से पूजा अर्चना करने से भगवान विष्णु की कृपा अवश्य मिलती है।

अपरा एकादशी की पूजा विधि

  • अपरा एकादशी पर भगवान विष्णु की पूजा एक दिन पहले दशमी तिथि की रात्रि से ही शुरू हो जाती है ।
  • दशमी तिथि के दिन सूर्यास्त के बाद भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए ।
  • -एकादशी की सुबह सूर्योदय से पहले उठें और अपने स्नान के जल में गंगाजल मिलाकर स्नान करें और साफ कपड़े पहन कर विष्णु भगवान का ध्यान करना चाहिए.
  • पूर्व दिशा की तरफ एक पटरे पर पीला कपड़ा बिछाकर भगवान विष्णु की फोटो को स्थापित करें. इसके बाद धूप दीप जलाएं और कलश स्थापित करें.
  • भगवान विष्णु को अपने सामर्थ्य के अनुसार फल-फूल, पान, सुपारी, नारियल, लौंग आदि अर्पण करें और स्वयं भी पीले आसन पर बैठ जाएं ।
  • अपने दाएं हाथ में जल लेकर अपनी मुश्किलों को खत्म करने की प्रार्थना भगवान विष्णु से करें ।
  • पूरा दिन निराहार रहकर शाम के समय अपरा एकादशी की व्रत कथा सुनें और फलाहार करें ।
  • शाम के समय भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने एक गाय के घी का दीपक जलाएं ।

अपरा एकादशी के दिन बरतें ये सावधानियां

  • धार्मिक मान्यताओं के अनुसार एकादशी के पावन दिन चावल का सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चावल का सेवन करने से मनुष्य का जन्म रेंगने वाले जीव की योनि में होता है। इस दिन जो लोग व्रत नहीं रखते हैं, उन्हें भी चावल का सेवन नहीं करना चाहिए।
  • एकादशी का पावन दिन भगवान विष्णु की अराधना का होता है, इस दिन सिर्फ भगवान का गुणगान करना चाहिए। एकादशी के दिन गुस्सा नहीं करना चाहिए और वाद-विवाद से दूर रहना चाहिए। 
  • अपरा एकादशी के दिन देर तक ना सोएं ।
  •  घर में लहसुन प्याज और तामसिक भोजन बिल्कुल भी ना बनाएं ।
  • एकादशी की पूजा पाठ करते समय साफ-सुथरे कपड़े पहनकर ही पूजा करें ।
  • अपरा एकादशी का व्रत विधान करते समय परिवार में शांतिपूर्वक माहौल बनाए रखें 
  • एकादशी के पावन दिन मांस- मंदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन ऐसा करने से जीवन में तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस दिन व्रत करना चाहिए। अगर आप व्रत नहीं करते हैं तो एकादशी के दिन सात्विक भोजन का ही सेवन करें। 

एकादशी तिथि का आरंभ: 17 मई 2020 को 12:44 बजे
एकादशी तिथि का समापन: 18 मई 2020 को 15:08 बजे
अपरा एकादशी पारण समय: 19 मई 2020 को प्रात: 05:27:52 से 08:11:49 बजे तक
अवधि: 2 घंटे 43 मिनट

ओम नमो नारायणाय

भगवान श्रीराम बारह कला के अवतार माने गए तथा श्रीकृष्ण सोलह कला के। जानिये क्या है ये कलाओ का चक्कर ?

भगवान श्रीराम बारह कला के अवतार माने गए तथा श्रीकृष्ण सोलह कला के।  जानिये क्या है ये कलाओ का चक्कर ? 


भगवान विष्णु के दशावतार बताये जाते हैं जिनमें 9 अवतार रूप धारण कर चुके हैं जबकि दसवें अवतार का जन्म लेना अभी बाकि है। मान्यता है कि विष्णु का दसवां अवतार कल्कि होगें जो कलयुग के अंत में अवतरित होंगे और श्वेत अश्व पर सवार हो दुष्टों का संहार करेंगें। अभी तक विष्णु ने जितने भी अवतार रूप लिये हैं उनमें श्री कृष्ण सबसे श्रेष्ठ अवतार माने जाते हैं क्योंकि उनमें किसी भी व्यक्ति में संभव होने वाली समस्त  सोलह कलाएं मौजूद थी। हमारे ग्रंथों में अब तक हुए अवतारों का जो विवरण है उनमें मत्स्य, कश्यप और वराह में एक-एक कला, नृसिंह और वामन में दो-दो और परशुराम मे तीन कलाएं बताई गई हैं। श्री राम ने बारह कलाओं के साथ अवतार लिया था। भगवान श्रीकृष्ण ही सोलह कलाओं के स्वामी माने जाते हैं। भगवान राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। सोलह श्रृंगार के बारे में भी आपने सुना होगा।  उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वरतुल्य होता है। १६ कलाओं की चर्चा का आरम्भ क्यों हुआ ? वस्तुतः यह १६ कलाएं जीव की हैं । अर्थात् पुरुष शरीर जब प्रकट होता है तो उसमें ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ, १ मन और पंचमहाभूत ये मिलकर १६ कलाएं हो जाती हैं। इन्हीं को १६ कलाओं का अवतार कहा जाता है। इस परिभाषा से भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण में समानता है क्योंकि दोनों मनुष्याकृति के अवतार हैं और दोनों में ११ इन्द्रि। 

कला वैसे सामान्य शाब्दिक अर्थ के रूप में देखा जाये तो कला एक विशेष प्रकार का गुण मानी जाती है। यानि सामान्य से हटकर सोचना, सामान्य से हटकर समझना, सामान्य से हटकर खास अंदाज में ही कार्यों को अंजाम देना कुल मिलाकर लीक से हटकर कुछ करने का ढंग व गुण जो किसी को आम से खास बनाते हों कला की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। भगवान विष्णु ने जितने भी अवतार लिये सभी में कुछ न कुछ खासियत होती थी वे खासियत उनकी कला ही थी।

आपने सुना होगा कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि ऐसे शब्दों को जिनका संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है, जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है। पंद्रह कलाओं से युक्त व्यक्ति को अंशावतार ही माना जाता है। श्रीराम बारह और भगवान कृष्ण सोलह कलाओं से युक्त थे। एक मान्यता यह भी है कि राम सूर्यवंशी हैं तो सूर्य की बारह कलाओं के कारण, उनके भीतर बारह कलाएं थी। कृष्ण चंद्रवंशी हैं तो चंद्रमा की सोलह कलाओं से युक्त होने के कारण पूर्णावतार हैं। भगवान श्रीकृष्ण के बारे में कहा जाता था कि वह संपूर्णावतार थे और मनुष्य में निहित सभी सोलह कलाओं के स्वामी थे।शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार ईश्वर का पूर्णावतार, ईश्वर के सोलह अंशों (कला) से पूर्ण होता है। सामान्य मनुष्य में पांच अशों (कलाओं) का समावेश होता है। यही मनुष्य योनि की पहचान भी है। पांच कलाओं से कम होने पर पशु, वनस्पति आदि की योनि बनती है और पांच से आठ कलाओं तक श्रेष्ठ मनुष्य की श्रेणी बनती है। अवतार नौ से सोलह कलाओं से युक्त होते हैं।  कला को अवतारी शक्ति की एक इकाई मानें तो श्रीकृष्ण सोलह कला अवतार माने गए हैं। सोलह कलाओं से युक्त अवतार पूर्ण माना जाता हैं, अवतारों में श्रीकृष्ण में ही यह सभी कलाएं प्रकट हुई थी। इन कलाओं के नाम निम्नलिखित हैं:-
१. श्री संपदा: प्रथम कला धन संपदा नाम से जानी जाती हैं है। इस कला से युक्त व्यक्ति के पास अपार धन होता हैं और वह आत्मिक रूप से भी धनवान होता है। 
२. भू संपदा:  वह व्यक्ति जो पृथ्वी के राज भोगने की क्षमता रखता है।  
३ कीर्ति संपदा : जिस व्यक्ति की मान-सम्मान और यश की कीर्ति चारों और फैली हुई हो।  
४. वाणी सम्मोहन:   इस कला से संपन्न व्यक्ति मोहक वाणी युक्त होता हैं।  
५. लीला : इस कला से युक्त व्यक्त अपने जीवन की लीलाओं को रोचक और मोहक बनाने में सक्षम होता है।
६. कांति : ऐसे व्यक्ति जिनके रूप को देखकर मन स्वतः ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है।  
७. विद्या : सभी प्रकार के विद्याओं में निपुण व्यक्ति 
८. विमला : जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं होता
९. उत्कर्षिणि शक्ति :जो लोगों को मंजिल पाने के लिये प्रोत्साहित कर सके।   
१०. नीर क्षीर विवेक: युद्ध तथा सामान्य जीवन में जी प्रेरणा दायक तथा योजना बद्ध तरीके से कार्य करता हैं।  
११. कर्मण्यता: जिनकी इच्छा मात्र से संसार का हर कार्य हो सकता है।  
१२. योग शक्ति :  जिन्होंने अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है वह योग चित्तलय कला से संपन्न होते हैं।  
१३. विनय : अहंकार नहीं होता है।
१४. सत्य धारणा : व्यक्ति कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखता और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जानता  हैं।  
१५. आधिपत्य : व्यक्ति में वह गुण सर्वदा ही व्याप्त रहती हैं, जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है ।
१६. अनुग्रह क्षमता : निस्वार्थ भावना से लोगों का उपकार करना अनुग्रह उपकार है।

कुल मिलाकर जिसमें भी ये सभी कलाएं अथवा इस तरह के गुण होते हैं वह ईश्वर के समान ही होता है। क्योंकि किसी इंसान के वश में तो इन सभी गुणों का एक साथ मिलना दूभर ही नहीं असंभव सा लगता है, क्योंकि साक्षात ईश्वर भी अपने दशावतार रूप लेकर अवतरित होते रहे हैं लेकिन ये समस्त गुण केवल द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के अवतार रूप में ही मिलते हैं। जिसके कारण यह उन्हें पूर्णावतार और इन सोलह कलाओं का स्वामी कहा जाता है।

हजारों गुणों से भरी रामा–श्यामा तुलसी जाने कैसे हमारी इम्यून सिस्टम बढ़ाने में मददगार।

हजारों गुणों से भरी रामा–श्यामा तुलसी जाने कैसे हमारी  इम्यून सिस्टम बढ़ाने में मददगार।  


प्राचीन समय से ही तुलसी के पौधों  का धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व के साथ ही औषधीय गुण जन-जन के बीच विख्यात है। हिंदू धर्म में तुलसी के पौधे का काफी धार्मिक महत्व है।  ऐसा माना जाता है कि घर में तुलसी का पौधा लगाने से घर में सकारात्मकता, धन-दौलत, ज्ञान, ऐश्‍वर्य, शांति, आरोग्य एवं शुद्धता का वास बना रहता है। यही वजह है कि तुलसी को अत्यधिक गुणकारी एवं अद्वितीय भी माना जाता है।कई लोग तुलसी की पूजा और तुलसी विवाह भी संपन्न कराते हैं. तुलसी को सेहत के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है. तुलसी के पौधे में काफी औषधीय गुण भी पाए जाते हैं. यही वजह है कि इस पौधे को काफी कल्याणकारी और स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है. तुलसी भी कई प्रकार की होती हैं।  

तुलसी की मुख्यत: दो प्रजातियां अधिकांश घरों में लगाई जाती हैं। इन्हें रामा और श्यामा कहा जाता है। श्यामा  तुलसी को कृष्णा तुलसी भी कहा जाता है।  तुलसी को उसके गुणों एवं रंगों के आधार पर कई प्रजातियों में बाँटा गया है। इनमें से राम तुलसी और कृष्ण तुलसी दो लोकप्रिय प्रकार हैं। यहाँ हम राम और कृष्ण तुलसी के संबंध में जानेंगे। राम तुलसी एवं कृष्णा तुलसी दोनों का अपना-अपना औषधीय महत्व है। दोनों ही प्रकार के तुलसी के पौधे अनेक रोगों को जड़ से समाप्त करने की क्षमता से परिपूर्ण एवं आयुर्वेदिक औषधि की भांति सहायक एवं गुणकारी हैं। कहते हैं जिस घर में तुलसी होती है उस घर में सुख-समृद्धि की कमी नहीं रहती है। ईश्वर की कृपा सदैव बनी रहती है। इन दोनों तुलसी में ढेरों ऐसे गुण होते हैं जो बड़ी-बड़ी जटिल बीमारियों को दूर करने और उनकी रोकथाम करने में सहायक है। तुलसी का पौधा घर में रहने से उसकी सुगंध वातावरण को पवित्र बनाती है और हवा में मौजूद बीमारी के बैक्टेरिया आदि को भी नष्ट कर देती है। यह भी मान्यता है कि तुलसी का पौधा घर में होने से पवित्रता बनी रहती है। घर वालों को बुरी नजर प्रभावित नहीं कर पाती और अन्य बुराइयां भी घर और घरवालों से दूर ही रहती हैं। लेकिन क्या आपको है मालूम कि आपके गमले में कौन सी तुलसी विराजमान है? तुलसी के रंग के आधार पर, दो मुख्य प्रकार हैं, सफेद -राम तुलसी और काले पत्तों वाली तुलसी को श्यामा तुलसी कहा जाता है।  

राम तुलसी
रामा तुलसी हर जगह आसानी से देखने वाली तुलसी होती है, जिसके पत्ती हल्के हरे रंग की होती हैं। रामा के पत्तों का रंग हल्का होता है। इसलिए इसे गौरी भी कहा जाता है। हल्के हरे रंग के पत्तों एवं भूरी छोटी मंजरियों वाली तुलसी को राम तुलसी कहा जाता है। राम तुलसी का पूजा आदि में अधिक प्रयोग होता है। इस तुलसी की टहनियाँ सफेद रंग की होती हैं।  इसकी गंध एवं तीक्ष्णता कम होती है। राम तुलसी का प्रयोग कई स्वास्थ्य एवं त्वचा संबंधी रोगों के निवारण के लिए औषधी के रूप में किया जाता है। रामा तुलसी का इस्तेमाल मसालेदार और कड़वी, गर्म, सौम्य, पाचन, पसीना और बच्चों की सर्दी-खांसी की बीमारियों को ठीक करने के लिए किया जाता है।  

श्यामा या कृष्ण तुलसी
श्यामा तुलसी के पत्तों का रंग काला होता है। इसमें कफनाशक गुण होते हैं। यही कारण है कि इसे दवा के रूप में अधिक उपयोग में लाया जाता है। यह एक ऐसी किस्म होती है, जिसकी पत्ती, मंजरी व शाखाएं बैंगनी-काले से रंग की होती हैं। हल्के जामुनी या कृष्ण (काले) रंग की छोटी पत्तियों एवं मंजरियों का यह पौधा जामुनी रंग का होता है। श्याम तुलसी की शाखाएँ लगभग 1 से 3 फुट ऊँची एवं बैगनी आभा वाली होती हैं। इसके पत्ते 1 से 2 इंच लम्बे एवं अण्डाकार या आयताकार आकृति के होते हैं। श्यामा तुलसी मसालेदार और कड़वी, मुलायम, चिकनी, पचने में हल्की, शोषक और वात-पित्त में लाभदायक होती है।  तुलसी कफ, वायरल इन्फेक्शन, पित्ताशय की थैली, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, हृदय, एनीमिक और कुष्ठ जैसे रोगों में भी फायदेमंद है।   श्यामा तुलसी का रस एलर्जी से भी राहत दिलाता है। यह टेंशन, स्ट्रेस दूर करता है और बदलते मौसम से होने वाली जुकाम ठीक करता है।श्यामा तुलसी का काढ़ा किसी भी तरह के बुखार को ठीक करता है। श्यामा तुलसी स्टैमिना बढ़ाने में मददगार है। ये तुलसी मेटाबोलिज्म को सही बनाये रखता है और ठंडी के मौसम में होने वाले रोगों, इन्फेक्शन से सुरक्षा प्रदान करता है। 

रामा तुलसी की तुलना में श्याम तुलसी का स्वाद ज्यादा तेज और गर्म होता है। हरे पत्तों वाली राम तुलसी बच्चों के लिए और जामुनी रंग वाली श्यामा तुलसी जवान और बड़े उम्र लोगों के लिए अधिक लाभकारी होती है। इन दोनों तुलसी में ढेरों ऐसे गुण होते हैं जो बड़ी-बड़ी जटिल बीमारियों को दूर करने और उनकी रोकथाम करने में सहायक है। तुलसी का पौधा घर में रहने से उसकी सुगंध वातावरण को पवित्र बनाती है और हवा में मौजूद बीमारी के बैक्टेरिया आदि को नष्ट कर देती है। तुलसी की सुंगध हमें श्वास संबंधी कई रोगों से बचाती है। साथ ही तुलसी की एक पत्ती रोज सेवन करने से हमें कभी बुखार नहीं आएगा और इस तरह के सभी रोग हमसे सदा दूर रहते हैं। तुलसी की पत्ती खाने से हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता काफी बढ़ जाती है।

तुलसी की एक जाति वन तुलसी भी होती है। इसमें जबरदस्त जहरनाशक प्रभाव पाया जाता है, परन्तु परन्तु इसे घरों में बहुत कम लगाया जाता है। इस प्रकार की तुलसी आंखों के रोग, कोढ़ और प्रसव में परेशानी जैसी समस्याओं में बहुत उपयोगी  दवा है।

जानिये कृष्‍ण की नगरी वृन्दावन में बनने जा रहे दुनिया के सबसे ऊंचे मंदिर के बारे में रोचक जानकारी

जानिये कृष्‍ण की नगरी वृन्दावन में बनने जा रहे दुनिया के  सबसे ऊंचे मंदिर के बारे में  रोचक जानकारी 


कृष्‍ण की पवित्र  नगरी मथुरा-वृंदावन दुनिया भर  में मशहूर है और देश-विदेश के लाखों पर्यटक यहां घूमने आते हैं'।  कृष्‍ण की नगरी में वृंदावन में बनने जा रहा दुनिया का सबसे ऊंचा मंदिर और इसी के साथ यह दुनिया की सबसे ऊंची इमारत भी होगी।  वृंदावन में बनने जा रहे इस मंदिर का नाम चंद्रोदय है, जोकि दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा और मुकेश अंबानी के एंटीलिया से भी ऊंचा बनाया जा रहा है।  दुनिया में यह अब तक का सबसे विशाल, भव्य और ऊंचा मंदिर वृंदावन में बनाया जा रहा है। यह मंदिर कुतुब मीनार से भी तीन गुना उंचा होगा।

वृंदावन में बन रहे देश के सबसे उंचे चंद्रोदय मंदिर का निर्माण साल  2022 तक पूरा हो जाने की संभावना है। इसे इस्काॅन की बैंगलोर इकाई के द्वारा कुल  700  करोड़ रुपए की लागत से निर्मित किया जा रहा है। इस मंदिर के मुख्य आराध्य देव भगवान कृष्ण होंगे। इस मंदिर के 20 एकड़ क्षेत्र में भगवान कृष्ण पर आधारित देश के पहले थीम पार्क का भी निर्माण किया जाएगा। इस  मंदिर की आधारशिला 16 नवंबर 2014 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने रखी थी तथा उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मंदिर का शिलान्यास किया था।  मंदिर का भूमि पूजन मथुरा की सांसद और अभिनेत्री हेमा मालिनी द्वारा किया गया था। जानिये वृन्दावन में बनने वाले मंदिर के बारे में कुछ रोचक जानकारी : 


बताया जा रहा है कि इस्कॉन संस्था द्वारा वृंदावन में बनाया जाने वाले इस 70 मंजिला चंद्रोदय मंदिर की ऊंचाई 210 मीटर होगी और य‍ह एक पिरामिड के आकार में बनाया जाएगा. इसे बनाने की तैयारियां 2006 से की जा रही थीं। दिल्ली में 72.5 मीटर के कुतुब मीनार से इस इसकी ऊंचाई 3 गुना ज्यादा होगी, जिस के कारण पूर्ण होने पर, यह विश्व का सबसे ऊंचा धर्मालय बन जाएगा। पूरी बिल्डिंग में 511 पिलर होंगे। इन पर पूरी बिल्डिंग का वजन 5 लाख टन होगा, जबकि ये पिलर नौ लाख टन वजन सह सकते हैं। मंदिर के लिए हाई स्पीड लिफ्ट तैयार की जा रही है। इस मंदिर की सबसे खास बात यह है कि यदि किसी तूफान की वजह से बिल्डिंग एक मीटर झुक भी गई तो भी लिफ्ट सीधी चलती रहेगी। गति और दिशा में परिवर्तन नहीं होगा।

इस मंदिर की खास बात यह है कि इसकी केवल ऊंचाई ही नहीं बल्कि गहराई भी अधि‍क होगी, ताकि नींव भी उतनी ही मजबूत रहे। यह इमारत लगभग 55 मीटर गहरी होगी और इसका आधार 12 मीटर तक ऊंचा होगा। जबकि दुबई स्थि‍त दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा की गहराई मात्र 50 मीटर है। अत: चंद्रोदय मंदिर की गहराई बुर्ज खलीफा से भी 5 मीटर अधि‍क है। प्राकृतिक आपदा के लिहाज से भी इसे काफी मजबूत बनाया जा रहा है और 8 रिक्टर स्केल से अधिक तीव्रता का भूकंप भी इसे क्षति नहीं पहुंचा सकेगा। इसके अलावा इसमें प्रयोग किए जाने वाले कांच और अन्य सामान भी भूकंप रोधी होंगे। यह 170 किलोमीटर की तीव्रता के तूफान को भी झेलने में सक्षम होगा।  

इसके गगनचुम्बी शिखर के अलावा इस मंदिर की दूसरी विशेष आकर्षण यह है की मंदिर परिसर में 26  एकड़ के भूभाग पर चारों ओर 12 कृत्रिम वन बनाए जाएंगे, जो मनमोहक हरेभरे फूलों और फलों से लदे वृक्षों, रसीले वनस्पति उद्यानों,  हरे घास के मैदानों,  पेड़ों की सुंदर खा़काओं, पक्षी गीत द्वारा स्तुतिगान फूल लादी लताओं, कमल और लिली से भरे साफ पानी के पोखरों एवं छोटी कृत्रिम पहाड़ियों और झरनों से भरे होंगें, जिन्हें विशेष रूप से पूरी तरह हूबहू श्रीमद्भागवत एवं अन्य शास्त्रों में दिये गए कृष्णकाल के विवरण के अनुसार ही बनाया जाएगा ताकि यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं को कृष्णकाल के ब्रज का आभास कराया जा सके। पूरी तरह से तैयार होने के बाद यह मंदिर कृष्ण भक्तों की वृंदावन की कल्पना को पूरी तरह से साकार करेगा। यमुना के स्वरूप में कृत्रिम झरने का निर्माण किया जाएगा जिसमें पर्यटकों को नौकायन का अवसर भी मिलेगा। बच्चों को भी आनंद की अनुभूति होगी क्योंकि वहां जंगल में कृष्ण-लीला देखने को मिलेगी।

मंदिर की सबसे ऊंची मंजिला का नाम ब्रज मंडल दर्शन रखा गया है। यहां से ब्रज के 76 धार्मिक स्थानों और ताजमहल तक को दूरबीन से देखा जा सकेगा। पूरे मंदिर को घूमने  में श्रद्धालुओं को तीन से चार दिन लगेंगे। परंपरागत द्रविड़ और नगर शैली में बनाया जा रहा यह मंदिर, 200 सालों में अब तक का सबसे मॉडर्न मंदिर होगा, जिसमें 4डी तकनीक द्वारा देवलोक और देवलीलाओं के दर्शन भी किए जा सकेंगे। इसके अलावा इसमें श्रीकृष्ण के जीवन लीलाओं को जानने के लिए लाइब्रेरी तथा अन्य माध्यम भी होंगे।

इस व्यापक परियोजना के साथ ब्रज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए अक्षय पात्र मध्याह्न भोजन कार्यक्रम और वृंदावन की विधवाओं के लिए कल्याणकारी कार्यक्रमों को और मजबूत बनाने का उद्देश्य है। इसके साथ ब्रज के विभिन्न स्थलों का कायाकल्प किया जाएगा और यमुना नदी पर ध्यान दिया जाएगा।

15 हज़ार किलो सोने से बना दक्षिण भारत का स्वर्ण मंदिर जिसे दुनिया के अजूबों में शामिल किया गया है।

15 हज़ार किलो सोने से बना दक्षिण भारत का स्वर्ण मंदिर जिसे दुनिया के अजूबों में शामिल किया गया है।  


स्वर्ण मंदिर का नाम आते ही दिमाग में पंजाब के स्वर्ण मंदिर की याद आ जाती है।  परन्तु यदि आपसे कहा जाए की आप दक्षिण भारत के स्वर्ण मंदिर को जानते है तो आपका जवाब शायद ना में होगा।  तमिलनाडु के वेल्लोर नगर के मलाईकोड़ी पहाड़ो पर स्थित है यह महालक्ष्मी मंदिर। वैल्लूर से 7 किलोमीटर दूर थिरूमलाई कोडी में सोने से बना श्री लक्ष्मी नारायणी मंदिर है। अगर आपको  ऐसे स्वर्ग की सैर जीते जी करनी है, तो आपको एक ऐसी जगह के बारें में बता रहे है, जो कि पूरी तरह से सोने से बनी हुई है।  इस मंदिर की खासियत है इसकी अलौकिक भव्यता, जिसके लिए यह पूरी दुनिया में जाना जाता है।  जिस तरह उत्तर भारत का अमृतसर का स्वर्ण मंदिर बहुत खूबसूरत होने से साथ-साथ विश्व प्रसिद्ध भी है, उसी तरह दक्षिण भारत का यह स्वर्ण मंदिर है, जिसके निर्माण में सबसे ज्यादा सोने का उपयोग किया गया है।  जहां तक अमृतसर के स्‍वर्ण मंदिर की बात है, वहां केवल 750 किलो स्‍वर्ण की छतरी बनी है, जबकि उसकी तुलना में यहां 15 हज़ार किलो सोना लगाया गया है। यह अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के स्वर्ण से दोगुना  है। यह मंदिर दक्षिण भारत में स्थित है जो करीब 15 हज़ार किलो सोने से निर्मित है।  दुनिया के किसी भी मंदिर में नहीं लगा है इतना सोना। इसलिए दुनिया के चुनिंदा अजूबों में इस मंदिर का  नाम आता है। यह  मंदिर सिर्फ मां लक्ष्मी के दर्शन के लिए ही नहीं प्रसिद्ध है बल्कि मंदिर में लगा सोना हर किसी को अपनी ओर खींचता चला आता है।  इतनी मात्रा में सोने का प्रयोग किसी दूसरे मंदिर में नहीं हुआ है। माता लक्ष्मी को समर्पित इस मंदिर के निर्माण में 300 करोड़ रुपए से ज्यादा धनराशि की लागत लगी है।  

इस महालक्ष्मी मंदिर में हर एक कलाकृति हाथों से बनाई गई है। दिवाली आते ही दक्षिण भारत का यह मंदिर स्वर्ग की अनुभूति कराता है।   ऐसा माना जाता है कि अमावस की रात महालक्ष्मी स्वंय भ्रमण कर रही हों।   इस मंदिर को भक्तों के लिए 2007 में खोला गया था।  बड़े पैमाने पर 7 साल तक चले कार्य के बाद करीब 400 सुनारो और मजदूरों ने इसे बनाया था। यहाँ रोजाना लाखो भक्त दर्शन करने आते है।  रात के वक्त रौशनी में यह बहुत ख़ूबसूरत लगता है।  100 एकड़ से ज़्यादा क्षेत्र में फैला यह मंदिर चारों तरफ से हरियाली से घिरा हुआ है। इस स्वर्ण मंदिर को श्रीपुरम अथवा महालक्ष्मी स्वर्ण मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है।

मंदिर परिसर में लगभग 27 फीट ऊंची एक दीपमाला भी है। इसे जलाने पर सोने से बना मंदिर, जिस तरह चमकने लगता है, वह दृश्य  देखने लायक होता है। उस समय का नजारा देखने ही लायक होता है। यह दीपमाला सुंदर होने के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी रखती है। सभी भक्त मंदिर में भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी के दर्शन करने के बाद इस दीपमाला के भी दर्शन करना अनिवार्य मानते हैं। मंदिर को सुबह 4 से 8 बजे तक अभिषेक के लिए और सुबह 8 से रात के 8 बजे तक दर्शन के लिए खोला जाता है. इस मंदिर को और खूबसूरत बनाने के लिए इसके बाहरी क्षेत्र को सितारे का आकार दिया गया है।  दर्शनार्थी मंदिर परिसर की दक्षिण से प्रवेश कर क्लाक वाईज घुमते हुए पूर्व दिशा तक आते हैं, जहां से मंदिर के अंदर भगवान श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन करने के बाद फिर पूर्व में आकर दक्षिण से ही बाहर आ जाते हैं। साथ ही मंदिर परिसर में उत्तर में एक छोटा सा तालाब भी है।  मंदिर परिसर में देश  की सभी प्रमुख नदियों से पानी लाकर सर्व तीर्थम सरोवर का निर्माण भी कराया गया है।  मंदिर में जाने के लिए बहूत सारे नियम बनाये गये है जैसे आप लुंगी, शॉर्ट्स, नाइटी, मिडी, बरमूडा पहनकर नहीं जा सकते।  इस मंदिर की सुरक्षा में 24 घंटे पुलिस और सिक्योरिटी कंपनियों का पहरा रहता है।

यहाँ पहुंचने के लिए के लिए  इस मंदिर के सबसे पास काटपाडी रेलवे स्टेशन है। इस स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर ही ये मंदिर स्थित है। इसके अलावा यहां पहुंचने के लिए तमिलनाडु से कई और मार्ग भी हैं। यहां सड़क और वायु मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है।   

पौराणिक महत्व के आधार पर केवल इन्ही चार स्थानों पर क्यों होता है कुंभ मेले का आयोजन।

पौराणिक महत्व के आधार पर केवल इन्ही चार स्थानों पर क्यों होता है कुंभ मेले का आयोजन।


कुंभ मेला हिंदू समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण पर्व एवं दुनिया भर में किसी भी धार्मिक प्रयोजन हेतु भक्तों का सबसे बड़ा आयोजन  है। इसमें करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु कुंभ पर्व की जगह पर स्नान करने के लिए आते हैं।  कुंभ का आयोजन भारतवर्ष में मुख्य रूप से चार स्थानों पर होता है। इनमें हरिद्वार, उज्जैन, प्रयागराज और नासिक शहर शामिल हैं। इनमे उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ भी कहा जाता है। कुंभ का पर्व हर 12 वर्ष के अंतराल पर चारों में से किसी एक पवित्र नदी के तट पर मनाया जाता है।   हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में शिप्रा, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम जहां गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं।  इन स्थानों पर एक-एक करके अर्धकुंभ का आयोजन किया जाता है। उदाहरण के तौर पर, प्रयागराज में कुंभ के आयोजन के तीन साल बाद हरिद्वार में कुंभ का आयोजन होगा तो उसके तीन साल बाद अगले स्थान का नंबर आएगा। इस तरह हर तीन साल बाद कुंभ का आयोजन होता है। कुंभ मेला उज्जैन, नासिक, प्रयाग और हरिद्वार में मनाया जाता है। इन चार मुख्य तीर्थ स्थानों पर हर 12 साल के अंतराल में लगने वाले इस कुंभ पर्व में स्नान और दान करना अच्छा माना जाता है। इस मौके पर न सिर्फ हिंदू बल्कि दूसरे देशों से भी हिंदू समुदाय में विश्वास रखने वाले लोग स्नान करने के लिए आते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि इस कुंभ पर्व के समय को वैकुंठ के समान पवित्र कहते हैं और इस दौरान त्रिवेणी में स्नान करने वालों को एक लाख पृथ्वी की परिक्रमा करने से भी ज्यादा और हज़ारो अश्वमेघ यज्ञों का पुण्य मिल जाता है। इस मेले में स्नान करने वाले को स्वर्ग दर्शन के समान माना  जाता है।  

कुंभ मेला तीन तरह का होता है। अर्ध कुंभ, कुंभ और महाकुंभ। आमतौर पर हर छह  साल के अंतर में कुंभ का योग जरूर बन ही जाता है। इसलिए बारह साल में होने वाले पर्व को कुंभ और छह साल में होने वाले को अर्ध कुंभ कहते हैं।अर्ध कुंभ का आयोजन हर छह साल में किया जाता है और कुंभ का आयोजन हर बारह साल में होता है। जबकि महाकुंभ करीब 144 साल में एक बार लगता है। कुंभ का आयोजन बारह साल में इसलिए होता है क्योंकि ज्योतिषीय दृष्टिकोण से गुरु ग्रह एक राशि में करीब 1 साल रहते हैं। ऐसे में बारह साल बाद वह अपनी राशि में पहुंचते हैं। इसी साल कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। कुंभ मेलों के प्रकार:- 

महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह प्रत्येक 144 वर्षों में या बारह पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है।  
पूर्ण कुंभ मेला: यह हर बारह साल में आता है. मुख्य रूप से भारत में चार कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं. यह हर बारह  साल में इन चार स्थानों पर बारी-बारी आता है।  
अर्ध कुंभ मेला: इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज।  
कुंभ मेला: चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है. लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं।  


इस पर्व में जुटने वाली भीड़ को देखते हुए कुंभ आयोजन स्थान पर महिनों पहले से ही तैयारी शुरु कर दी जाती है।  वैसे तो कुंभ मेले में स्नान का यह पर्व मकर संक्रांति से शुरु होकर अगले पचास दिनों तक चलता है, लेकिन इस कुंभ स्नान में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण ज्योतिष तिथियां होती हैं, जिनका विशेष महत्व होता है।  यहीं कारण है कि इन तिथियों को स्नान करने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु तथा साधु इकठ्ठे होते हैं।  इन तिथियों को शाही स्नान भी कहा जाता है जैसे  मकर सक्रांति, पौष पुर्णिमा, मौनी अमवस्या – इस दिन दूसरे शाही स्नान का आयोजन होता है, बसंत पंचमी – इस दिन तीसरे शाही स्नान का आयोजन होता है, माघ पूर्णिमा तथा महाशिवरात्रि – यह कुंभ पर्व का आखिरी दिन होता है। शाही स्नान के दौरान साधु-संत हाथी-घोड़ो सोने-चांदी की पालकियों पर बैठकर स्नान करने के लिए आते हैं। यह स्नान ए खास मुहूर्त पर होता है, जिसपर सभी साधु तट पर इकट्ठा होते हैं और जोर-जोर से नारे लगाते हैं। माना जाता है कि इस मुहूर्त में नदी के अंदर डुबकी लगाने से अमरता प्राप्त हो जाती है। यह मुहूर्त करीब 4 बजे शुरु हो जाता है। साधुओं के बाद आम जनता को स्नान करने का अवसर दिया जाता है। कुंभ मेले के दौरान आयोजन स्थल पर इन 50 दिनों में लगभग मेले जैसा माहौल रहता है और करोड़ों के तादाद में श्रद्धालु इस पवित्र स्नान में भाग लेने के लिए पहुँचते है।


कलश को कुंभ कहा जाता है। कुंभ का अर्थ होता है घड़ा। इस पर्व का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से जुड़ा है।  माना जाता है कि समुद्र मंथन में निकले अमृत कलश को लेकर जब धन्वंतरि प्रकट हुए थे तो अमृत के लिए देवताओं और दानवों के बीच में युद्ध हुआ था और जब अमृत भरा कलश लेकर देवता जाने लगे तो उसे 4 जगहों पर रखा था। इस वजह से अमृत की कुछ बूंदे गिर गई थी और ये चार स्थान हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन बने। वहीं एक मान्यता साथ में ये भी है कि अमृत के घड़े को लेकर गरुड़ उड़े गए थे और दानवों ने उनका पीछा किया था जिसमें छीना-झपटी हुई और घड़े से अमृत की बूंदें चार स्थानों पर गिर गई। जिनपर बूंदें छलकी उन्हें प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन नाम से पहचाना जाता है। अमृत की ये बूंदें चार जगह गिरी थी:- गंगा नदी (प्रयाग, हरिद्वार), गोदावरी नदी (नासिक), क्षिप्रा नदी (उज्जैन)। सभी नदियों का संबंध गंगा से है। गोदावरी को गोमती गंगा के नाम से पुकारते हैं। क्षिप्रा नदी को भी उत्तरी गंगा के नाम से जानते हैं, यहां पर गंगा गंगेश्वर की आराधना की जाती है। इसलिए इन्हीं चार स्थानों पर कुंभ का मेला लगता रहा है जहां श्रद्धालु स्नान कर पुण्य प्राप्त करते है।  कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सम्मेलन है जिसे "धार्मिक तीर्थयात्रियों की दुनिया की सबसे बड़ी मंडली" के रूप में भी जाना जाता है।

अवश्य आजमाएं भगवान शिव के यह सरल उपाय, देंगे अपार धन

अवश्य आजमाएं भगवान शिव के यह सरल उपाय, देंगे अपार धन 


हिन्दू धर्म में भगवान शंकर को सांसारिक सुखों से जुड़े सारे मनोरथ पूरे करने वाले देवता माना जाता हैं। उन्हें प्रसन्न करने के लिए धर्मग्रंथों में कई उपवास बताए गए हैं। इस सृष्टि का निर्माण भगवान शिव की इच्छा मात्र से ही हुआ है। अत: इनकी भक्ति करने वाले व्यक्ति को संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त हो सकती हैं। शिवजी अपने भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूरी कर देते हैं। शिवपुराण के अनुसार, नियमित रूप से शिवलिंग का पूजन करने वाले व्यक्ति के जीवन में दुखों का सामना करने की शक्ति प्राप्त होती है। शिवजी के पूजन से श्रद्धालुओं की धन संबंधी समस्याएं भी दूर हो जाती हैं।  नियमित रूप से अपनाने वाले व्यक्ति को अपार धन-संपत्ति प्राप्त हो सकती है।कई भक्त अलग-अलग वजहों से व्रत के धार्मिक विधि विधानों का ठीक से पालन नहीं कर पाते है। इसलिए ऐसे भक्तों के लिए जो व्रत नहीं रख पाते हैं वे शिवपुराण में बताए अलग-अलग अनाज का चढ़ावा सुख-सौभाग्य व धन सहित कई मनचाहे फल देने वाला आसान से उपाय कर पूजा कर सकते है। 


चावल यानी अक्षत हमारे ग्रंथों में सबसे पवित्र अनाज माना गया है।  अगर पूजा पाठ में किसी सामग्री की कमी रह जाए तो उस सामग्री का स्मरण करते हुए चावल चढ़ाए जा सकते हैं।  देव पूजा में अक्षत यानी चावल का चढ़ावा बहुत ही शुभ माना जाता है। शिव पूजा में भी महादेव या शिवलिंग के ऊपर चावल (जो टूटे हुए न हो) चढ़ाने से माँ लक्ष्मी की कृपा यानी धन लाभ होता है। शिवपुराण के अनुसार शिवलिंग पर चावल चढ़ाने से भक्त की सभी मनोकामनाएं पूर हो जाती हैं।  मात्र 4 दाने चावल रोज चढ़ाने से  भी अपार ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।  ध्यान रहे चावल टूटे हुए ना हो तथा चावल के दाने साफ़ और स्वच्छ होने चाहिये।  भगवान शंकर की पूजा में सवा किलो चावल शिवलिंग पर चढ़ाएं और पूजा के बाद चावल का दान किसी गरीब व्यक्ति को कर दें।   इसका सफेद रंग शांति का प्रतीक है।  अत: हमारे प्रत्येक कार्य की पूर्णता ऐसी हो कि उसका फल हमें शांति प्रदान करे।  इसीलिए पूजन में अक्षत एक अनिवार्य सामग्री है।  कहा जाता है ऐसा हर सोमवार को करने से सभी मनोकामना पूरी हो जाती है।  यह भी कहा जाता है नौकरी संबंधी परेशानी को दूर करने के लिए घर की छत पर पक्षियों के लिए चावल डालें क्योंकि इससे नौकरी से जुड़ी समस्याएं दूर हो जाती है।  

इसके अलावा भगवान शिव की पूजा के लिए कुछ और आसान उपाय भी हैं :



शिवलिंग के पास रोज रात्रि लगाएं दीपक 
शिवपुराण एक ऐसा शास्त्र है, जिसमें  भगवान शंकर और सृष्टि के निर्माण से जुड़ी कई रहस्यमयी बातें बताई गई हैं। इस पुराण में कई चमत्कारी उपाय बताए गए हैं, जो हमारे जीवन की धन संबंधी समस्या को खत्म करते हैं और अक्षय पुण्य भी प्रदान करते हैं। इन उपायों से पिछले पापों का नाश होता है और भविष्य सुखद बनता है।
यदि आप भी शिवजी की कृपा से धन संबंधी समस्याओं से छुटकारा पाना चाहते हैं तो यहां बताया गया एक और आसान उपाय हर रोज रात को करना चाहिए।  यह उपाय शिव पुराण में बताया गया है।  शाम के समय शिव मंदिर में दीपक लगाने वाले व्यक्ति को अपार धन-संपत्ति एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैं। अत: नियमित रूप से रात्रि के समय किसी भी शिवलिंग के समक्ष दीपक लगाना चाहिए। दीपक लगाते समय 'ओम  नम: शिवाय' मंत्र का जाप भी करना चाहिए।  


  • शिव की तिल से पूजा करने पर मन, शरीर और विचारों से हुए दोष का अंत हो जाता है। सारे तनाव व दबाव की वजहे अचानक दूर हो जाती हैं।
  • अरहर के पत्तों या दाल से शिव की पूजा करने से तन, मन व धन से जुड़े हर तरह के दु:ख दूर हो जाते हैं।
  • जौ चढ़ाकर शिव की पूजा अंतहीन व पीढ़ीयों को सुख देने वाली सिद्ध होती है।

यमराज का दूसरा नाम धर्मराज क्यों ? जानिए धर्मराज के कुछ खास रहस्य तथा मंदिरो के बारे में।

यमराज का दूसरा नाम धर्मराज क्यों ? जानिए धर्मराज के कुछ खास रहस्य तथा मंदिरो के बारे में।  


हिन्दू धर्म में तीन दंड नायक है यमराज, शनिदेव और भैरव। यमराज को 'मार्कण्डेय पुराण' के अनुसार दक्षिण दिशा के दिक्पाल और मृत्यु का देवता कहा गया है। प्राणी की मृत्यु या अंत को लाने वाले देवता यम है।  यमलोक के स्वामी होने के कारण  ये यमराज कहलाए। यमराज का नाम धर्मराज इसलिए पड़ा क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को सजा देने का कार्य प्राप्त हुआ था। यमराज का पुराणों में विचित्र विवरण मिलता है। पुराणों के अनुसार यमराज का रंग हरा है और वे लाल वस्त्र पहनते हैं। यमराज का ही दूसरा नाम धर्मराज है क्योंक‌ि यह धर्म और कर्म के अनुसार जीवों को अलग-अलग लोकों और योन‌ियों में भेजते हैं। धर्मात्मा व्यक्त‌ि को यह कुछ-कुछ व‌िष्‍णु भगवान की तरह दर्शन देते हैं और पाप‌ियों को उग्र रुप में। चूँकि मृत्यु से सब डरते है, इसलिए यमराज से भी सब डरने लगे।  जीवित प्राणी का जब अपना काम पूरा हो जाता है , तब मृत्यु के समय शरीर में से प्राण खींच लिए जाते है, ताकि प्राणी फिर नया शरीर प्राप्त कर नए सिरे से जीवन प्रारंभ कर सके।  

यमराज सूर्य के पुत्र है और उनकी माता का नाम संज्ञा है।  उनका वाहन भैंसा और संदेशवाहक पछी कबूतर, उल्लू और कौआ भी माना  जाता है।  यमराज भैंसे की सवारी करते हैं और उनके हाथ में गदा होती है। ऋग्वेद में कबूतर और उल्लू को यमराज का दूत बताया गया है। गरुड़ पुराण में कौआ को यम का दूत कहा गया है।यमराज अपने हाथ के कालसूत्र या कालपाश की बदौलत जीव के शरीर से प्राण निकल लेते है। यमपुरी यमराज की नगरी है, जिसके दो महाभयंकर चार आँखों वाले कुत्ते पहरेदार है।  यमलोक के द्वार पर दो व‌िशाल कुत्ते पहरे देते हैं। इसका उल्लेख ह‌िन्दू धर्मग्रंथों के अलावा पारसी और यूनानी ग्रंथों में भी म‌िलता है। यमराज अपने सिंहासन पर न्यायमूर्ति की तरह बैठकर विचार भवन कालीची में मृतात्माओं को एक-एक कर बुलवाते है।  यमराज के मुंशी 'चित्रगुप्त' हैं जिनके माध्यम से वे सभी प्राणियों के कर्मों और पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखते हैं। चित्रगुप्त की बही 'अग्रसन्धानी' में प्रत्येक जीव के पाप-पुण्य का हिसाब है। कहते हैं कि विधाता लिखता है, चित्रगुप्त बांचता है, यमदूत पकड़कर लाते हैं और यमराज दंड देते हैं। कर्मो को ध्यान में रखकर ही यमराज अपना फैसला देते है।  यमलोक में चार द्वार हैं ज‌िनमें पूर्वी द्वारा से प्रवेश स‌िर्फ धर्मात्मा और पुण्यात्माओं को म‌िलता है जबक‌ि दक्ष‌िण द्वार से पाप‌ियों का प्रवेश होता है ज‌िसे यमलोक में यातनाएं भुगतनी पड़ती है।



यमराज की यो तो कई पत्नियां थी, लेकिन उनमे सुशीला, विजया और हेमनाल अधिक जानी जाती है।  उनके पुत्रो में धर्मराज युधिष्ठिर को तो सभी जानते है।  न्याय के पक्ष में   फैसला देने के गुणो के कारण ही यमराज और युधिष्ठिर जगत में धर्मराज के नाम से जाने जाते है।  यम द्वितीया के अवसर पर जिस दिन भाई-बहिन का त्यौहार भाई-दूज मनाया जाता है।  यम और यमुना की पूजा का विधान बनाया गया है।  उल्लेखनीय है की यमुना  नदी को यमराज की बहन माना  जाता है।  स्कन्दपुराण' में कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को भी दीये जलाकर यम को प्रसन्न किया जाता है। 

भोमवारी चतुर्दशी की यमतीर्थ के दर्शन कर सब पापो से छुटकारा मिल जाये, उसके लिए प्राचीन कल में यमराज ने यमतीर्थ में कठोर तपस्या करके भक्तो को  सिद्धि प्रदान करने वाले यमेश्वर और यमादित्य की स्थापना  की थी।इसको प्रणाम करने वाले एवं यमतीर्थ में स्नान करने वाले मनुष्यो को नारकीय यातनाओ को न तो भोगना पड़ता है और न ही यमलोक देखना पड़ता है।  इसके अलावा मान्यता तो यहाँ तक है की यमतीर्थ में श्राद्ध करके, यमेश्वर का पूजन करने और यमादित्य को प्रणाम करके व्यक्ति अपने पितृ-ऋण से भी उऋण हो सकता है। 

जानते हैं यमराज के खास मंदिरों के बारे में 
भरमौर का यम मंदिर : यमराज का यह मंदिर हिमाचल के चम्बा जिले में भरमौर नाम स्थान पर स्थित है जो एक भवन के समान है।  यह मंदिर देखने में एक घर की तरह दिखाई देता है जहां एक खाली कक्ष है जिमें भगवान यमराज अपने मुंशी चित्रगुप्त के साथ विराजमान हैं।  माना जाता है कि इस मंदिर में चार अदृश्य द्वार हैं जो स्वर्ण, रजत, तांबा और लोहे के बने हैं। यमराज का फैसला आने के बाद यमदूत आत्मा को कर्मों के अनुसार इन्हीं द्वारों से स्वर्ग या नर्क में ले जाते हैं। 


यमुना-धर्मराज मंदिर विश्राम घाट, मथुरा : यह मंदिर उत्तर प्रदेश के मथुरा में यमुना तट पर विश्राम घाट के पास स्थित है। इस बहन-भाई का मंदिर भी कहा जाता है क्योंकि यमुना और यमराज भगवान सूर्य के पुत्री और पुत्र थे। इस मंदिर में यमुना और धर्मराज जी की मूर्तियां एक साथ लगी हुई है। ऐसी पौराणिक मान्यता है की जो भी भाई, भैया दूज  के दिन यमुना में स्नान करके  इस मंदिर में दर्शन करता है उसे यमलोक जाने से मुक्ति मिल जाती है।


वाराणसी का धर्मराज मंदिर : काशी में यमराज से जुड़ी अनसुनी जानकारियां छिपी हैं। यहाँ मीर घाट पर मौजूद है अनादिकाल का धर्मेश्वर महादेव मंदिर जहां धर्मराज यमराज ने शिव की आराधना की थी। माना जाता है कि यम को यमराज की उपाधि यहीं पर मिली थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अज्ञात वास के दौरान यहां धर्मेश्वर महादेव की पूंजा की थी। मंदिर का इतिहास पृथ्वी पर गंगा अवतरण के भी पहले का है, जो काशी खंड में वर्णित है।