जानिए, क्यों की जाती है देव मूर्ति के चारों ओर परिक्रमा ?
भारतीय संस्कृति में परिक्रमा या प्रदक्षिणा का अपना एक विशेष महत्व एवं स्थान है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसके बांयी तरफ से घूमना। इसे ही प्रदक्षिणा कहते हैं। यह हमारी संस्कृति में अतिप्राचीन काल से चली आ रही है। विश्व के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है। परिक्रमा करना कोरा अंधविश्वास नहीं, बल्कि यह विज्ञान सम्मत है। जिस स्थान या मंदिर में विधि-विधानानुसार प्राण प्रतिष्ठित देवी देवता की मूर्ति स्थापित की जाती है उस स्थान के मध्य बिंदु से प्रतिमा के कुछ मीटर की दूरी तक उसे शक्ति की दिव्य प्रभा रहती है, जो पास में अधिक गहरी और बढ़ती दूरी के हिसाब से कम होती चली जाती है। ऐसे में प्रतिमा की पास से परिक्रमा करने से शक्तियों के ज्योतिमंडल से निकलने वाले तेज की हमे सहज ही प्राप्ति हो जाती है।
चूंकि दैवीय शक्ति की आभा मंडल की गति दक्षिणवर्ती होती है। अतः उनकी दिव्य प्रभा सदैव भी दक्षिण की ओर गतिमान होती है। यही कारण है कि दाएं हाथ की ओर से परिक्रमा किया जाना श्रेष्ठ माना गया है। यानी दाहिने हाथ की ओर से घूमना ही प्रदक्षिणा का सही अर्थ है। हम अपने इष्ट देवी-देवता की मूर्ति की, विभिन्न शक्तियों की प्रभा या तेज को परिक्रमा करके प्राप्त कर सकते हैं। उनका यह तेजदान वरदान स्वरुप विघ्नों, संकटो विपतियो का नाश करने में समर्थ होता है। इसलिए परंपरा है की पूजा-पाठ, अभिषेक आदि कृत्य करने के बाद देवी-देवता की परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए। प्रदक्षिणा या परिक्रमा करने का मूल भाव स्वयं को शारीरिक तथा मानसिक रूप से भगवान के समक्ष पूर्णरूप से समर्पित कर देना होता है।
कहां जाता है कि प्रतिमा की शक्ति की जितनी अधिक परिक्रमा की जाए उतना ही वह लाभप्रद होती है। फिर भी कृष्ण भगवान की तीन परिक्रमा की जाती है। देवी जी की एक परिक्रमा करने का विधान है। आमतौर पर पाँच, ग्यारह परिक्रमा करने का सामान्य नियम है। शास्त्रों में भगवान शंकर की परिक्रमा करते समय अभिषेक की धार को न लांघने का विधान बताया गया है। इसलिए इनकी पूरी परिक्रमा न कर आधी की जाती है और आधी वापस उसी तरफ लौटकर की जाती है। मान्यता है की शंकर भगवान के तेज की लहरो की गतियाँ बाई और दाई दोनों और होती है।
उल्टी यानी विपरीत वामवर्ती (बाए हाथ की तरफ से ) परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिमंडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्य परमाणुओं में टकराव पैदा होता है। परिणामस्वरूप हमारा तेज नष्ट हो जाता है। इसलिए वामवर्ती परिक्रमा को वर्जित किया गया है। इसे पाप स्वरुप बताया गया है। इसके घातक परिणाम उस दैवीय शक्ति पर निर्भर करते है, जिसकी विपरीत परिक्रमा की गयी है। जाने या अनजाने में की गई उल्टी परिक्रमा का दुष्परिणाम तो भुगतना ही पड़ता है।
परिक्रमा करने वाले श्रद्धालुओं को कुछ बातों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। जिस देवी-देवता की परिक्रमा की जा रही है, उसकी परिक्रमा के दौरान उसका मंत्र जाप मन से करें। मन में निंदा, बुराई, दुर्भावना, क्रोध, तनाव आदि विकार न आने दे। जूते, चप्पल निकाल कर नंगे पैर ही परिक्रमा करें। हंसते-हंसते, बातचीत करते-करते, खाते पीते, धक्का मुक्की करते हुए परिक्रमा न करें। परिक्रमा के दौरान देवी शक्ति से याचना न करे। देवी-देवता को प्रिय तुलसी, रुद्राक्ष, कमलगट्टे की माला उपलब्ध हो तो धारण करे। परिक्रमा पूर्ण कर अंत में प्रतिमा को साष्टांग प्रणाम कर श्रद्धा और विश्वास के साथ आशीर्वाद हेतु प्रार्थना करे।
मंदिर की परिक्रमा करने का वैज्ञानिक कारण भी हैं। ऐसी मान्यता है कि मंदिर में दर्शन करने और पूजा करने के बाद परिक्रमा करने से सारी सकारात्मक ऊर्जा शरीर में प्रवेश करती है और मन को शांति मिलती है. साथ ही यह भी मान्यता है कि नंगे पांव परिक्रमा करने से अधिक सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है ।
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